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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 3: वृन्दावन से बाहर भगवान् की लीलाएँ  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  3.3.27 
हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकम्बलान् ।
यानं रथानिभान् कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
हिरण्यम्—सोना; रजतम्—रजत; शय्याम्—बिस्तर; वासांसि—वस्त्र; अजिन—आसन के लिए पशुचर्म; कम्बलान्—कम्बल; यानम्—घोड़े; रथान्—रथ; इभान्—हाथी; कन्या:—लड़कियाँ; धराम्—भूमि; वृत्ति-करीम्—आजीविका प्रदान करने के लिए; अपि—भी ।.
 
अनुवाद
 
 ब्राह्मणों को दान में न केवल सुपोषित गौवें दी गईं, अपितु उन्हें सोना, चाँदी, बिस्तर, वस्त्र, पशुचर्म के आसन, कम्बल, घोड़े, हाथी, कन्याएँ तथा आजीविका के लिए पर्याप्त भूमि भी दी गई।
 
तात्पर्य
 ये सारे दान उन ब्राह्मणों के लिए थे जिनके जीवन आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों दृष्टियों से समाज-कल्याण में पूरी तरह लगे होते थे। ब्राह्मण-गण अपनी सेवाएँ वेतनभोगी सेवकों की तरह नहीं प्रदान कर रहे थे, अपितु समाज उन्हें सारी आवश्यकताएँ प्रदान करता था। कुछ ब्राह्मण, जिनका विवाह नहीं हो पाता था, उन्हें कन्याएँ दी जाती थीं। अतएव ब्राह्मणों के समक्ष कोई आर्थिक समस्या नहीं थी। क्षत्रिय राजा तथा धनी व्यापारी लोग उनको सभी आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करते थे और ब्राह्मण-जन बदले में समाज के उत्थान के प्रति पूर्णतया समर्पित थे। विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक सहयोग का यही मार्ग था। जब ब्राह्मण वर्ग या जाति, जिसमें ब्राह्मण योग्यताएँ नहीं थीं, समाज द्वारा पोषित होकर धीरे-धीरे आरामतलब बन गई, तो वे पतित होकर ब्रह्मबन्धु अर्थात् अयोग्य ब्राह्मण बन गये। इसी तरह समाज के अन्य सदस्य प्रगतिशील जीवन के सामाजिक मानदण्ड से क्रमश: नीचे गिर गये। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, जाति प्रथा भगवान् द्वारा निर्मित है और समाज के प्रति किये गये कार्य के गुण के अनुसार व्यवस्थित है, जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में नहीं जैसाकि वर्तमान पतित समाज में झूठे ही दावा किया जाता हैं।
 
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