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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 3: वृन्दावन से बाहर भगवान् की लीलाएँ  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.3.3 
समाहुता भीष्मककन्यया ये
श्रिय: सवर्णेन बुभूषयैषाम् ।
गान्धर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागं
जह्रे पदं मूर्ध्नि दधत्सुपर्ण: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
समाहुता:—आमंत्रित; भीष्मक—राजा भीष्मक की; कन्यया—पुत्री द्वारा; ये—जो; श्रिय:—सम्पत्ति; स-वर्णेन—उसी तरह के क्रम में; बुभूषया—ऐसा होने की आशा से; एषाम्—उनका; गान्धर्व—ब्याह की; वृत्त्या—ऐसी प्रथा द्वारा; मिषताम्—ले जाते हुए; स्व-भागम्—अपना हिस्सा; जह्रे—ले गया; पदम्—पाँव; मूर्ध्नि—सिर पर; दधत्—रखते हुए; सुपर्ण:—गरुड़ ।.
 
अनुवाद
 
 राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के सौन्दर्य तथा सम्पत्ति से आकृष्ट होकर अनेक बड़े-बड़े राजकुमार तथा राजा उससे ब्याह करने के लिए एकत्र हुए। किन्तु भगवान् कृष्ण अन्य आशावान् अभ्यर्थियों को पछाड़ते हुए उसी तरह अपना भाग जान कर उसे उठा ले गये जिस तरह गरुड़ अमृत ले गया था।
 
तात्पर्य
 राजा भीष्मक की पुत्री कुमारी रुक्मिणी सचमुच ही लक्ष्मी जैसी आकर्षक थीं, क्योंकि वे रंग तथा गुण दोनों में ही स्वर्ण जैसी मूल्यवान थीं। चूँकि लक्ष्मीजी भगवान् की सम्पत्ति हैं, अत: रुक्मिणी वास्तव में कृष्ण के ही निमित्त थीं। किन्तु रुक्मिणी के बड़े भाई ने शिशुपाल को उसके पति के रूप में चुना था, यद्यपि राजा भीष्मक अपनी पुत्री का विवाह कृष्ण से करना चाहते थे। रुक्मिणी ने शिशुपाल के चंगुल से अपने को छुड़ाने के लिए कृष्ण को आमंत्रित किया, अत: जब दूल्हा बनकर शिशुपाल अपनी टोली सहित रुक्मिणी से विवाह करने की इच्छा से वहाँ आया तो कृष्ण सहसा ही सभी राजकुमारों को पछाड़ते हुए रुक्मिणी को वहाँ से ऐसे उठा ले गये जिस तरह गरुड़ असुरों के हाथ से अमृत ले भागा था। इस घटना की स्पष्ट विवेचना दशम स्कन्ध में की जाएगी।
 
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