ब्रह्म-संहिता (५.३३) में भगवान् उनके असंख्य स्वांशों के साथ निम्नवत् वर्णन हुआ है— अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरुषंनवयौवनं च।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
“मैं उन भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो आदि भगवान् हैं। वे अपने असंख्य स्वांशों से अभिन्न हैं; वे अच्युत, आदि, तथा असीम हैं एवं नित्य स्वरूपों वाले हैं। यद्यपि वे सबसे प्राचीन पुरुष हैं, किन्तु वे सदैव नवीन तथा युवा रहते हैं।” भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति से स्वयं प्रकाश के विविध पुरुषों में और पुन: प्राभव तथा वैभव रूपों में विस्तार कर सकते हैं। ये सारे रूप एक दूसरे से अभिन्न होते हैं। भगवान् ने विभिन्न भवनों में रह रही राजकुमारियों के साथ विवाह करने के लिए जिन रूपों में अपना विस्तार किया वे उनमें से हर एक के अनुरूप होने से कुछ-कुछ भिन्न थे। वे भगवान् के वैभव-विलास रूप कहलाते हैं और उनकी अन्तरंगा शक्ति योग-माया द्वारा क्रियाशील होते हैं।