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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 30: भगवान् कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  3.30.14 
तत्राप्यजातनिर्वेदो भ्रियमाण: स्वयम्भृतै: ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ; अपि—यद्यपि; अजात—उदय नहीं हुई हो; निर्वेद:—विरुचि; भ्रियमाण:—पालित होकर; स्वयम्— अपने आपसे; भृतै:—पालित लोगों से; जरया—वृद्धावस्था से; उपात्त—प्राप्त; वैरूप्य:—विरूपता, रूप बिगडऩा; मरण—मृत्यु; अभिमुख:—पास आकर; गृहे—घर में ।.
 
अनुवाद
 
 मूर्ख पारिवारिक व्यक्ति गृहस्थ जीवन से पराङ्मुख नहीं होता, यद्यपि अब उसका पालन उन लोगों के द्वारा किया जा रहा है, जिन्हें पहले उसने पाला था। वृद्धावस्था के कारण उसका रूप विकृत हो जाता है और वह मृत्यु की तैयारी करने लगता है।
 
तात्पर्य
 पारिवारिक आकर्षण इतना प्रबल होता है कि मनुष्य अपनी वृद्धावस्था में अपने ही परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षित होने पर भी परिवार के प्रति अपना प्रेम नहीं छोड़ पाता और वह घर में कुत्ते के समान रहा आता है। वैदिक जीवन-शैली में मनुष्य को पारिवारिक जीवन का परित्याग कर देना था जब वह हट्टा कट्टा हो। अत: सलाह दी जाती है कि अधिक दुर्बल होने तथा भौतिक कार्यों में अत्यधिक निराश होने एवं मरने के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि गृहस्थाश्रम त्याग कर जीवन के शेष दिन भगवान् की सेवा में लगाये। अत: वैदिक शास्त्रों में आदेश दिया गया है कि ज्योंही पचास वर्ष की आयु पूरी हो जाय, मनुष्य को चाहिए कि पारिवारिक जीवन त्याग कर जंगल में एकान्त में रहे। अपने को पूरी तरह तैयार कर लेने के बाद संन्यासी होकर वह प्रत्येक व्यक्ति को घर-घर में आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान वितरित करे।
 
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