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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 30: भगवान् कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  3.30.17 
शयान: परिशोचद्‌भि: परिवीत: स्वबन्धुभि: ।
वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशं गत: ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
शयान:—लेटा हुआ; परिशोचद्भि:—पश्चात्ताप करते हुए; परिवीत:—घिरा हुआ; स्व-बन्धुभि:—अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों से; वाच्यमान:—बोलने के लिए कहे जाने पर; अपि—यद्यपि; —नहीं; ब्रूते—बोलता है; काल—समय के; पाश—फंदा के; वशम्—वशीभूत; गत:—गया हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार वह मृत्यु के पाश में बँधकर लेट जाता है, विलाप करते उसके मित्र तथा सम्बन्धी उसे घेर लेते हैं और उन सबसे बोलने की इच्छा करते हुए भी वह बोल नहीं पाता, क्योंकि वह काल के वश में रहता है।
 
तात्पर्य
 जब मनुष्य मृत्युशय्या पर होता है, तो उसके सम्बन्धी शिष्टाचारवश उसके पास आते हैं। कभी-कभी मरने वाले व्यक्ति को “अरे, मेरे पिता! अरे, मेरे मित्र! अरे, मेरे पति”! सम्बोधित करके जोर-जोर से रोते-चिल्लाते हैं। उस दयनीय अवस्था में मरने वाला व्यक्ति उनसे बोलना चाहता है और अपनी इच्छाएँ व्यक्त करना चाहता है, किन्तु वह काल अर्थात् मृत्यु के वश में रहता है, अत: अपने आपको व्यक्त नहीं कर पाता। इससे उसे अकल्पनीय पीड़ा होती है। वह पहले से रुग्ण होने के कारण पीड़ादायक अवस्था में रहता है और उसकी ग्रन्थियाँ तथा गला कफ से अवरुद्ध रहते हैं। वह पहले से विकट स्थिति में रहता है और जब उसे उसके सम्बन्धी पुकारते हैं, तो उसका शोक बढ़ जाता है।
 
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