जीवतश्चान्त्राभ्युद्धार: श्वगृध्रैर्यमसादने ।
सर्पवृश्चिकदंशाद्यैर्दशद्भिश्चात्मवैशसम् ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
जीवत:—जीवित; च—तथा; अन्त्र—आँतें; अभ्युद्धार:—बाहर खींचकर; श्व-गृध्रै:—कुत्तों तथा गीधों द्वारा; यम- सादने—यमराज के सदन में; सर्प—सर्प; वृश्चिक—बिच्छू; दंश—डाँस, मच्छर; आद्यै:—इत्यादि के द्वारा; दशद्भि:—काटे जाने पर; च—तथा; आत्म-वैशसम्—अपना उत्पीडऩ ।.
अनुवाद
नरक के कुत्तों तथा गीधों द्वारा उसकी आँखें उसके जीवित रहते और देखते-देखते निकाल ली जाती हैं और उसे साँपों, बिच्छुओं, डाँसों तथा अन्य काटने वाले जन्तुओं से पीड़ा पहुँचाई जाती है।
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