श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 30: भगवान् कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  3.30.29 
अत्रैव नरक: स्वर्ग इति मात: प्रचक्षते ।
या यातना वै नारक्यस्ता इहाप्युपलक्षिता: ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
अत्र—इस संसार में; एव—ही; नरक:—नरक; स्वर्ग:—स्वर्ग; इति—इस प्रकार; मात:—हे माता; प्रचक्षते—लोग कहते हैं; या:—जो जो; यातना:—यातनाएँ; वै—निश्चय ही; नारक्य:—नारकीय; ता:—वे; इह—यहाँ; अपि—भी; उपलक्षिता:—दृष्टिगोचर होती हैं ।.
 
अनुवाद
 
 कपिलमुनि ने आगे कहा : हे माता, कभी-कभी यह कहा जाता है कि इसी लोक में हम नरक अथवा स्वर्ग का अनुभव करते हैं, क्योंकि कभी-कभी इस लोक में भी नारकीय यातनाएँ दिखाई पड़ती हैं।
 
तात्पर्य
 कभी-कभी अविश्वासी लोग नरक सम्बन्धी शास्त्रों के इन कथनों को नहीं मानते। वे ऐसे प्रामाणिक विवरणों की अवहेलना करते हैं। अत: भगवान् कपिल उनकी पुष्टि यह कह कर करते हैं कि ये नारकीय परिस्थितियाँ इस लोक में भी दिखती हैं। ऐसा नहीं कि ये केवल यमराज के निवास करने वाले लोक में ही हों। यमराज के लोक में पापी पुरुष को उन नारकीय परिस्थितियों में रहने का अवसर प्रदान किया जाता है, जो उसे अगले जीवन में सहनी होंगी और फिर उसे दूसरे लोक में यही नारकीय जीवन बिताने के लिए जन्म लेने का अवसर दिया जाता है। उदाहरणार्थ, यदि मनुष्य को नरक में रहने, मल तथा मूत्र खाने का दण्ड दिया जाता है, तो सबसे पहले उसे यमराज के लोक में ऐसी आदतों का अभ्यास कराया जाता है, फिर उसे वैसा ही शरीर दिया जाता है, जैसे कि एक शूकर का जिससे कि वह मल खा सके और यह सोचे कि वह जीवन का आनन्द उठा रहा है। पीछे यह बताया जा चुका है कि कैसी भी नारकीय परिस्थिति में बद्धजीव अपने को सुखी मानता है। अन्यथा यह सम्भव नहीं कि वह नारकीय जीवन भोग सकें।
 
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