श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 30: भगवान् कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.30.4 
जन्तुर्वै भव एतस्मिन्यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
जन्तु:—जीव; वै—निश्चय ही; भवे—संसार में; एतस्मिन्—इस; याम् याम्—जिस-जिस; योनिम्—योनि को; अनुव्रजेत्—प्राप्त करता है; तस्याम् तस्याम्—उस उसको; स:—वह; लभते—प्राप्त करता है; निर्वृतिम्—सन्तोष को; न—नहीं; विरज्यते—पराङ्मुख (विरक्त) होता है ।.
 
अनुवाद
 
 जीव जिस योनि में भी प्रकट होता है, उसको उसी योनि में एक विशेष सन्तोष प्राप्त होता है और वह उस अवस्था में रहने से कभी विमुख नहीं होता।
 
तात्पर्य
 शरीर विशेष चाहे वह कितना ही गर्हित क्यों न हों, उसमें जीव को जो सन्तोष मिलना मोह कहलाता है। उच्चतर स्थिति में रहने वाला मनुष्य निम्न श्रेणी के मनुष्य के जीवनस्तर के प्रति असन्तुष्ट रह सकता है, किन्तु निम्न श्रेणी का मनुष्य बहिरंगा शक्ति माया के प्रभाव से उसी स्थिति में सन्तुष्ट रहता है। माया के कार्य की दो अवस्थाएँ हैं। पहली प्रक्षेपात्मिका और आवरणात्मिका। आवरणात्मिका का अर्थ है “प्रच्छन्न करने वाली” और प्रक्षेपात्मिका का अर्थ है “नीचे गिराने वाली।” भौतिकतावादी व्यक्ति या पशु जीवन की किसी भी अवस्था में सन्तुष्ट रहता है, क्योंकि उसका ज्ञान माया के प्रभाव से ढका हुआ रहता है। जीवन की निम्न श्रेणी में या निम्न योनियों में इतनी कम चेतना विकसित रहती है कि वह समझ नहीं पाता कि वह सुखी है या दुखी। यह आवरणात्मिका कहलाती है। यहाँ तक कि विष्ठा खाने वाला शूकर अपने में सुखी रहता है, यद्यपि उच्चतर श्रेणी का व्यक्ति यह देखता है कि शूकर विष्ठा खा रहा है। कितना गर्हित है ऐसा जीवन!
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥