नरकस्थोऽपि देहं वै न पुमांस्त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहित: ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
नरक—नरक में; स्थ:—स्थित; अपि—भी; देहम्—शरीर को; वै—निस्सन्देह; न—नहीं; पुमान्—मनुष्य; त्यक्तुम्— छोडऩे के लिए; इच्छति—चाहता है; नारक्याम्—नारकीय, नरकतुल्य; निर्वृतौ—भोग; सत्याम्—रहते हुए; देव- माया—भगवान् की माया से; विमोहित:—मोहग्रस्त ।.
अनुवाद
बद्धजीव अपनी योनि-विशेष में ही सन्तुष्ट रहता है, माया के आवरणात्मक प्रभाव से मोहग्रस्त होकर वह अपने शरीर को त्यागना नहीं चाहता, भले ही वह नरक में क्यों न हो, क्योंकि उसे नारकीय भोग में ही आनन्द मिलता है।
तात्पर्य
कहा जाता है कि एक बार स्वर्ग के राजा इन्द्र को उसके दुर्व्यवहार के लिए उसके गुरु बृहस्पति ने शाप दिया जिससे वह इस लोक में शूकर बन गया। बहुत दिनों के बाद जब ब्रह्मा ने उसे स्वर्ग बुलाना चाहा तब तक शूकर-रूप इन्द्र स्वर्ग का राजसी ठाटबाट भूल चुका था, अत: उसने वहाँ जाने से इनकार कर दिया। यह माया का पाश है। यहाँ तक कि इन्द्र को अपना नैसर्गिक जीवन-स्तर भूल गया और वह शूकर के जीवन-स्तर से सन्तुष्ट था। माया के प्रभाव से बद्धजीव अपने शरीर के प्रति इतना अनुरक्त हो उठता है कि यदि उससे कहा जाय कि, “इस शरीर को त्याग दो, तुम्हें तुरन्त राजा का शरीर दिया जाएगा” तो वह राजी नहीं होगा। यह आसक्ति समस्त बद्धजीवों को बुरी तरह प्रभावित करती है। भगवान् कृष्ण स्वयं घोषित करते हैं, “इस संसार की प्रत्येक वस्तु का त्याग करो। मेरे पास आओ और मैं तुम्हें सुरक्षा प्रदान करूँगा।” किन्तु हमें यह स्वीकार नहीं है। हम सोचते हैं, “हम बिल्कुल सही हैं। हम कृष्ण की शरण में जाकर उनके धाम वापस क्यों जायँ?” यही मोह या माया है। प्रत्येक प्राणी अपने जीवन-स्तर से सन्तुष्ट रहता है, भले ही वह कितना ही गर्हित क्यों न हो।
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