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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 30: भगवान् कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  3.30.9 
गृहेषु कूटधर्मेषु दु:खतन्त्रेष्वतन्द्रित: ।
कुर्वन्दु:खप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
गृहेषु—पारिवारिक जीवन में; कूट-धर्मेषु—झूठ बोलने के अभ्यास में; दु:ख-तन्त्रेषु—दुख फैलाने में; अतन्द्रित:— सावधान; कुर्वन्—करते हुए; दु:ख-प्रतीकारम्—दुखों को झेलना; सुख-वत्—सुख की भाँति; मन्यते—सोचते हैं; गृही—गृहस्थ ।.
 
अनुवाद
 
 आसक्त गृहस्थ कूटनीति तथा राजनीति से पूर्ण अपने पारिवारिक जीवन में रहा आता है। वह सदैव दुखों का विस्तार करता हुआ और इन्द्रियतृप्ति के कार्यों से नियन्त्रित होकर अपने सारे दुखों के फल को झेलने के लिए कर्म करता है। यदि वह इन दुखों को सफलतापूर्वक झेल लेता है, तो वह अपने को सुखी मानता है।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता में भगवान् स्वयं प्रमाणित करते हैं कि यह संसार कष्टों से पूर्ण नश्वर स्थान है। इस जगत में व्यक्तिगत या पारिवारिक, सामाजिक या राष्ट्रीय सुख का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि कहीं सुख के नाम पर कुछ हो रहा है, तो वह भी मोह है। इस जगत में सुख का अर्थ है दुख के फलों को सफलतापूर्वक झेलना। यह जगत ऐसा बनाया गया है कि जब तक कोई चतुर कूटनीतिज्ञ न हो उसका जीवन असफल रहता है। मानव समाज की बात छोड़ दें, निम्न पशुओं, पक्षियों तथा मधुमक्खियों का समाज तक भोजन, शयन तथा संभोग की शारीरिक आवश्यकताएँ चतुराई से पूरी कर लेता है। मानव समाज में राष्ट्रीय स्तर पर या व्यक्तिगत स्तर पर स्पर्धा चलती है और इसमें सफल होने के प्रयास में सारा मानव समाज कूटनीति से भर जाता है। किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि सारी कूटनीति तथा जीवनसंघर्ष में सारी बुद्धि के होते हुए भी सारी वस्तुएँ परमेश्वर की इच्छा होने पर क्षण भर में समाप्त हो जाएँगी। फलत: इस संसार में सुखी बनने के हमारे सारे प्रयास माया द्वारा प्रदत्त छल मात्र हैं।
 
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