जीव कहता है : मैं उन भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो अपने विभिन्न नित्य स्वरूपों में प्रकट होते हैं और इस भूतल पर घूमते रहते हैं। मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि वे ही मुझे निर्भय कर सकते हैं और उन्हीं से मुझे यह जीवन-अवस्था प्राप्त हुई है, जो मेरे अपवित्र कार्यों के सर्वथा अनुरूप है।
तात्पर्य
चलच्चरणारविन्दम् शब्द भगवान् का सूचक है, जो पृथ्वी पर चलते या भ्रमण करते हैं। उदाहरणार्थ, भगवान् रामचन्द्र पृथ्वी पर चले और भगवान् कृष्ण भी सामान्य मनुष्य की भाँति घूमते फिरते थे। अत: यह प्रार्थना उन भगवान् से की जाती है, जो इस पृथ्वी पर या ब्रह्माण्ड के किसी भी भाग पर साधुओं की रक्षा करने तथा असाधुओं को नष्ट करने के लिए अवतरित होते हैं। भगवद्गीता में इसकी पुष्टि हुई है कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तो भगवान् सत्पुरुषों की रक्षा करने और असाधुओं को मारने के लिए अवतरित होते हैं। इस श्लोक से भगवान् कृष्ण का संकेत मिलता है।
इस श्लोक की अन्य विशेषता है कि भगवान् इच्छया अर्थात् स्वेच्छा से आते हैं। जैसाकि भगवद्गीता से पुष्टि होती है—सम्भवाम्यात्ममायया—“मैं अपनी इच्छा से, अपनी अन्तरंगा शक्ति से प्रकट होता हूँ।” वे प्रकृति के नियमों से बाध्य होकर नहीं आते। यहाँ पर इच्छया कहा गया है : वे कोई स्वरूप धारण नहीं करते जैसाकि निर्विशेषवादी सोचते हैं, क्योंकि वे स्वेच्छा से आते हैं, अत: वे जिस रूप में अवतरित होते हैं वह सनातन रूप है। जिस तरह परमेश्वर जीव को भयावह स्थिति में डालता है, उसी तरह वह उसका उद्धार भी करता है, अत: मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के चरणकमलों की ही शरण में जाय। कृष्ण चाहते हैं, “प्रत्येक वस्तु को त्यागो और मेरी शरण में आओ।” भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि जो उनके पास चला जाता है, वह इस संसार में पुन: शरीर धारण करने नहीं आता, अपितु भगवान् के धाम जाता है जहाँ से कभी नहीं लौटता।
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