मैं अपने इस पंचभूतों से निर्मित भौतिक शरीर में होने के कारण परमेश्वर से विलग हो गया हूँ, फलत: मेरे गुणों तथा इन्द्रियों का दुरुपयोग हो रहा है, यद्यपि मैं मूलत: आध्यात्मिक हूँ। चूँकि ऐसे भौतिक शरीर से रहित होने के कारण भगवान् प्रकृति तथा जीव से परे हैं और चूँकि उनके आध्यात्मिक गुण महिमामय हैं, अत: मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।
तात्पर्य
जीवात्मा तथा भगवान् का अन्तर यह है कि जीव प्रकृति के वश में रहता है, जबकि भगवान् प्रकृति तथा जीव दोनों से परे हैं। जब जीवात्मा प्रकृति में रहता है, तो उसकी इन्द्रियाँ तथा उसके गुण कलुषित हो जाते हैं या उपाधिमय हो जाते हैं। चूँकि भगवान् प्रकृति के प्रभाव से बाहर हैं और निस्सन्देह जीव की तरह उन्हें अज्ञान के अन्धकार में नहीं रखा जा सकता। अत: भौतिक गुणों या इन्द्रियों से युक्त होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। अपने पूर्ण ज्ञान के कारण उन पर प्रकृति का वश नहीं चलता। उल्टे प्रकृति सदा ही उनके वश में रहती है, अत: प्रकृति के वश की बात नहीं कि वह भगवान् को अपने वश में रख सके। चूँकि जीव का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, अत: वह प्रकृति के वश में होता रहता है, किन्तु जब वह मिथ्या शरीर से मुक्त होता है, तो वह भगवान् जैसी ही आध्यात्मिक स्वभाव को प्राप्त करता है। उस समय उसमें तथा परमेश्वर में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं रह जाता, किन्तु वह इतना शक्तिमान नहीं होता कि प्रकृति के वश में कभी भी न आये, अत: वह भगवान् से भिन्न होता है।
भक्ति की पूरी प्रक्रिया ही अपने आपको प्रकृति के इस कल्मष से शुद्ध करना और आध्यात्मिक स्तर पर आसीन करना है जहाँ वह और भगवान् गुणात्मक रूप से एक होते हैं। वेदों में कहा गया है कि जीव सदैव मुक्त रहता है। असङ्गो ह्ययं पुरुष:। जीव मुक्त है। उसका भौतिक कल्मष क्षणिक है और उसकी वास्तविक स्थिति मुक्तता की है। यह मुक्ति कृष्णभावनामृत द्वारा प्राप्त की जाती और शरणागत होने के साथ ही प्रारम्भ होती है। इसलिए कहा गया है, “मैं परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ।”
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