श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  3.31.16 
ज्ञानं यदेतददधात्कतम: स देवस्
त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांश: ।
तं जीवकर्मपदवीमनुवर्तमानास्
तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
ज्ञानम्—ज्ञान; यत्—जो; एतत्—यह; अदधात्—दिया; कतम:—के अतिरिक्त दूसरा; स:—वह; देव:—भगवान्; त्रै-कालिकम्—तीनों कालों का; स्थिर-चरेषु—जड़ तथा जंगम में; अनुवर्तित—रहते हुए; अंश:—उनका आंशिक स्वरूप; तम्—उसको; जीव—जीवात्माओं का; कर्म-पदवीम्—सकाम कर्मों का मार्ग; अनुवर्तमाना:—पालन करने वाले; ताप-त्रय—तीन प्रकार के कष्ट; उपशमनाय—मुक्त होने के लिए; वयम्—हम; भजेम—शरण में जाएँ ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के आंशिक स्वरूप अन्तर्यामी परमात्मा के अतिरिक्त और कौन समस्त चर तथा अचर वस्तुओं का निर्देशन कर रहा है? वे काल की इन तीनों अवस्थाओं भूत, वर्तमान तथा भविष्य में उपस्थित रहते हैं। अत: बद्धजीव उनके ही आदेश से विभिन्न कर्मों में रत है और इस बद्ध जीवन के तीनों तापों से मुक्त होने के लिए हमें उनकी ही शरण ग्रहण करनी होगी।
 
तात्पर्य
 जब बद्धजीव माया के चंगुल से छूटने के लिए उत्सुक रहता है, तो उसके अन्त:करण में स्थित परमात्मास्वरूप भगवान् उसे यह ज्ञान देते हैं, “मेरी शरण में आओ।” जैसाकि भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं, “अन्य सारे कार्यों का परित्याग करके मेरी शरण ग्रहण करो।” यह मानना होगा कि ज्ञान का स्रोत परम पुरुष है। भगवद्गीता में इसकी पुष्टि होती है। मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। भगवान् कहते हैं, “मेरे ही द्वारा मनुष्य वास्तविक ज्ञान तथा स्मृति प्राप्त करता है और मुझी से विस्मृति भी मिलती है।” जो मनुष्य भौतिक दृष्टि से संतुष्ट होना चाहता है या जो प्रकृति पर अधिकार जताना चाहता है भगवान् उसे अपनी सेवा की विस्मृति तथा भौतिक कार्यकलापों के तथाकथित सुख का अवसर प्रदान करते हैं। इसी प्रकार जब कोई इस प्रकृति पर अधिकार करने में हताश हो जाता है और भवबन्धन से छूटना चाहता है, तो भगवान् उसे भीतर से यह ज्ञान प्रदान करते हैं कि वह उनकी शरण में जावे, तभी उसकी मुक्ति होगी।

यह ज्ञान भगवान् या उनके प्रतिनिधि के अतिरिक्त अन्य कोई प्रदान नहीं कर सकता। भगवान् चैतन्य चैतन्य-चरितामृत में रूप गोस्वामी को उपदेश देते हैं कि जीव जन्म-जन्मान्तर घूमता है और संसार के कष्ट भोगता रहता है। किन्तु जब कोई भव-बन्धन से छूटने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहता है, तो उसे गुरु तथा कृष्ण से प्रकाश प्राप्त होता है। इसका यह अर्थ हुआ कि कृष्ण परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और जब जीव वास्तव में उत्सुक होता है, तो वे उसे अपने प्रतिनिधि प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण करने का आदेश देते हैं। गुरु द्वारा भीतर से निर्देशित होकर तथा बाहर से पथ दिखाये जाने पर मनुष्य को कृष्णभक्ति का मार्ग प्राप्त होता है, जो भवबन्धन से छूटने का मार्ग है।

अत: जब तक भगवान् का आशीर्वाद नहीं मिलता तब तक कोई अपने वास्तविक पद पर स्थित नहीं हो पाता। जब तक उसे परम ज्ञान द्वारा प्रकाश प्राप्त नहीं हो लेता तब तक उसे इस जगत में जीवन-संघर्ष के लिए कठिन यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं। अत: गुरु परम पुरुष की कृपा का प्राकट्य होता है। बद्धजीव को गुरु से प्रत्यक्ष आदेश प्राप्त करने होते हैं और इस प्रकार धीरे-धीरे वह कृष्णभक्ति के मार्ग पर अग्रसर होने लगता है। कृष्णभक्ति का बीज बद्धजीव के हृदय में बोया जाता है और जब मनुष्य गुरु के उपदेश सुनता है, तो यह बीज फलित होता है और जीवन धन्य हो जाता है।

 
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