अपनी माता के उदर में रक्त, मल तथा मूत्र के कूप में गिर कर और अपनी माँ की जठराग्नि से दग्ध देहधारी जीव बाहर निकलने की व्यग्रता में महीनों की गिनती करता रहता है और प्रार्थना करता है, “हे भगवान्, यह अभागा जीव कब इस कारागार से मुक्त हो पाएगा?”
तात्पर्य
यहाँ पर माता के गर्भ में जीव की विषम परिस्थिति का वर्णन है। एक ओर शिशु जठराग्नि की उष्मा से तपता रहता है और दूसरी ओर मल, मूत्र, रक्त आदि रहते हैं। सात मास के बाद शिशु में चेतना आ जाती हैं, अत: उसे अपनी दु:सह स्थिति का बोध होने लगता है और वह भगवान् से प्रार्थना करता है। बाहर आने तक वह माहों की गिनती करता रहता है और उस कारागार से निकलने के लिए व्यग्र रहता है। तथाकथित सभ्य मनुष्य जीवन की इस भयावह स्थिति पर ध्यान नहीं देता और कभी-कभी इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से वह गर्भनिरोधक विधियों या गर्भपात के द्वारा उसे मारने का प्रयत्न करता है। ऐसे लोग गर्भ की भयावह स्थिति के प्रति चिन्तित न रह कर भौतिकता में पड़े रहते हैं और मनुष्य जीवन का दुरुपयोग करते हैं।
इस श्लोक का कृपणधी: शब्द महत्त्वपूर्ण है। धी: का अर्थ है ‘बुद्धि’ और कृपण का अर्थ है ‘कंजूस’। बद्धजीवन उन लोगों के लिए बना है, जो बुद्धि के कृपण हैं या जो अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं करते। मनुष्य में बुद्धि विकसित रहती है और इस बुद्धि का उपयोग जन्म-मरण के चक्र से छूटने के लिए करना होता है। जो ऐसा नहीं करता वह कंजूस है—वह केवल उसे देखता रहे। जो व्यक्ति अपनी मानव बुद्धि का उपयोग जन्म-मरण के चक्र अर्थात् माया के पाश से निकलने के लिए नहीं करता वह कंजूस माना जाता है। कृपण का विलोम ‘उदार’ है। ब्राह्मण उदार कहलाता है, क्योंकि वह अपनी मानवी बुद्धि का उपयोग आध्यात्मिक बोध के लिए करता है। वह उस बुद्धि का उपयोग जनता के लाभ हेतु कृष्णभक्ति का उपदेश करने के लिए करता है इसलिए वह उदार है।
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