कललं त्वेकरात्रेण पञ्चरात्रेण बुद्बुदम् ।
दशाहेन तु कर्कन्धू: पेश्यण्डं वा तत: परम् ॥ २ ॥
शब्दार्थ
कललम्—शुक्राणु तथा रज का मिश्रण; तु—तब; एक-रात्रेण—पहली रात में; पञ्च-रात्रेण—पाँचवी रात तक; बुद्बुदम्—बुलबुला; दश-अहेन—दस दिनों में; तु—तब; कर्कन्धू:—बेर के बराबर; पेशी—मांस का लोथड़ा; अण्डम्—अंडा; वा—अथवा; तत:—उससे; परम्—बाद में ।.
अनुवाद
पहली रात में शुक्राणु तथा रज मिलते हैं और पाँचवी रात में यह मिश्रण बुलबले का रूप धारण कर लेता है। दसवीं रात्रि को यह बढक़र बेर जैसा हो जाता है और उसके बाद धीरे-धीरे यह मांस के पिण्ड या अंडे में परिवर्तित हो जाता है।
तात्पर्य
अपने आत्मा का शरीर विभिन्न स्रोतों के अनुसार चार प्रकार से विकसित होता है। एक प्रकार का शरीर पौधों का है, जो पृथ्वी से फूटता है; दूसरे प्रकार का शरीर पसीने (श्वेद) से उत्पन्न होता है यथा मक्खी, कीड़े तथा खटमल; तीसरे प्रकार का शरीर अण्डे से विकसित होता है और चौथे प्रकार का शरीर भ्रूण से उत्पन्न होता है। इस श्लोक से सूचित होता है कि शुक्राणु तथा रज के मिलने के पश्चात् धीरे-धीरे शरीर मांस के पिंड में या अंडे में विकसित होता है। पक्षियों में अंडा बनता है और पशुओं तथा मनुष्यों में मांस का पिंड बनता है।
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