संसार के कष्ट उसी दिन से प्रारम्भ हो जाते हैं जब आत्मा माता तथा पिता के रज तथा शुक्र में शरण प्राप्त करता है और ये कष्ट माता के गर्भ से निकलने के बाद तथा उसके भी आगे चलते रहते हैं। हम नहीं जानते कि इन दुखों का अन्त कहाँ है। किन्तु इनका अन्त शरीर बदलने से नहीं होता। यह शरीर-परिवर्तन प्रतिक्षण चल रहा है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम गर्भावस्था की तुलना में उन्नति करके सुखी स्थिति को प्राप्त कर रहे हैं। अत: सबसे अच्छा यह है कि कृष्णभावनामृत का विकास किया जाय। यहाँ पर उपसादित विष्णु पाद: कहा गया है कि जिसका अर्थ है कृष्णभक्ति की अनुभूति। जो बुद्धिमान है और कृष्णभक्ति उत्पन्न कर सकता है, वह इस जीवन में सफल होता है, क्योंकि केवल कृष्णभक्ति करने से ही वह जन्म तथा मृत्यु के चक्कर से बच जाएगा। शिशु प्रार्थना करता है कि अंधकार के गर्भ में रहकर निरन्तर कृष्णभक्ति में तल्लीन रहना बाहर निकल कर पुन: माया के चंगुल में पडऩे से श्रेयस्कर है। यह माया गर्भ के भीतर और बाहर समान रूप से कार्य करती है, किन्तु चातुरी इसमें है कि कृष्णभक्ति की जाय जिससे इसका प्रभाव उतना बुरा न पड़े। भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य की बुद्धि उसका मित्र है और साथ ही शत्रु भी है। यहाँ पर इसी भाव की पुनरावृत्ति हुई है—सुहृदात्मनैव—मित्रवत् बुद्धि। कृष्ण की सेवा में तथा कृष्ण की पूर्ण चेतना में बुद्धि की तल्लीनता ही आत्म- साक्षात्कार तथा मुक्ति का मार्ग है। वृथा ही क्षुब्ध हुए बिना यदि हम हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का निरन्तर जप करते हुए कृष्णभक्ति (कृष्णभावनामृत) की विधि ग्रहण करें तो जन्म-मृत्यु के चक्र को सदा के लिए रोका जा सकता है।
यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि कृष्णभक्ति सम्पन्न करने के लिए आवश्यक सामग्री के अभाव में शिशु माता के गर्भ में कृष्णभक्ति किस प्रकार कर सकता है? भगवान् विष्णु की पूजा के लिए किसी सामग्री की आवश्यकता नहीं होती। शिशु माता के गर्भ में ही रहना चाहता है और साथ ही माया के चंगुल से भी मुक्त होना चाहता है। कृष्णभक्ति के अनुशीलन के लिए किसी प्रकार की भौतिक व्यवस्था आवश्यक नहीं है। कोई कहीं भी और कभी भी कृष्णभक्ति का अनुशीलन कर सकता है बशर्ते वह कृष्ण का निरन्तर चिन्तन करे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे महामन्त्र का जप माता के गर्भ में भी किया जा सकता है। सोते, जागते, काम करते, यहाँ तक कि माता के गर्भ में या उसके बाहर भी जप किया जा सकता है। शिशु की प्रार्थना का सारांश है, “मुझे इसी अवस्था में रहने दें, भले ही मैं दुखद स्थिति में हूँ, किन्तु बाहर जाकर माया के चंगुल में पडऩे से यह श्रेयस्कर है।”