श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.31.23 
तेनावसृष्ट: सहसा कृत्वावाक्शिर आतुर: ।
विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्‌वासो हतस्मृति: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
तेन—उस वायु से; अवसृष्ट:—बाहर की ओर धकेला जाकर; सहसा—अकस्मात्; कृत्वा—करके; अवाक्—औंधा; शिर:—शिर; आतुर:—कष्ट पाता हुआ; विनिष्क्रामति—बाहर आता है; कृच्छ्रेण—कठिनाई से; निरुच्छ्वास:— श्वासरहित; हत—विनष्ट; स्मृति:—स्मृति ।.
 
अनुवाद
 
 वायु द्वारा सहसा नीचे की ओर धकेला जाकर अत्यन्त कठिनाई से, सिर के बल, श्वासरहित तथा तीव्र वेदना के कारण स्मृति से विहीन होकर शिशु बाहर आता है।
 
तात्पर्य
 कृच्छ्रेण शब्द का अभिप्राय है “अत्यन्त कठिनाई के साथ।” जब शिशु संकीर्ण मार्ग से होकर गर्भ के बाहर निकलता है, तो भारी दबाव के कारण श्वास पूर्णतया रुक जाती है और वेदना के कारण शिशु अपनी स्मृति खो देता है। कभी-कभी इतनी पीड़ा होती है कि मृत या मृतप्राय शिशु जन्मता है। प्रसव-पीड़ा की कल्पना की जा सकती है। शिशु उस विकट परिस्थिति में दस मास तक गर्भ के भीतर रहता है और दस मास के बाद वह बलपूर्वक बाहर कर दिया जाता है। भगवद्गीता में भगवान् संकेत करते हैं कि जो आध्यात्मिक चेतना में प्रगति करने के लिए उत्सुक है उसे जन्म, मृत्यु, रोग तथा जरा इन चार पीड़ाओं का विचार करना चाहिए। भौतिकतावादी भले ही अनेक प्रकार से प्रगति कर ले, किन्तु वह संसार के इन चार प्रकार के कष्टों को रोकने में असमर्थ है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥