श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.31.25 
परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन स: ।
अनभिप्रेतमापन्न: प्रत्याख्यातुमनीश्वर: ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
पर-छन्दम्—पराई इच्छा; न—नहीं; विदुषा—समझ करके; पुष्यमाण:—पालित होकर; जनेन—व्यक्तियों द्वारा; स:—वह; अनभिप्रेतम्—अवांछित परिस्थितियों में; आपन्न:—गिरा हुआ; प्रत्याख्यातुम्—इनकार करने के लिए; अनीश्वर:—असमर्थ ।.
 
अनुवाद
 
 उदर से निकलने के बाद शिशु ऐसे लोगों की देख-रेख में आ जाता है और उसका पालन ऐसे लोगों द्वारा होता रहता है, जो यह नहीं समझ पाते कि वह चाहता क्या है। उसे जो कुछ मिलता है उसे वह इनकार न कर सकने के कारण वह अवांछित परिस्थिति में आ पड़ता है।
 
तात्पर्य
 माता के उदर में शिशु का पोषण प्राकृतिक व्यवस्था द्वारा सम्पन्न होता था। यद्यपि उदर के भीतर का वातावरण तनिक भी रुचिकर नहीं था, किन्तु जहाँ तक शिशु के खाने का प्रश्न था, उसके लिए प्राकृतिक व्यवस्था थी। किन्तु उदर से बाहर आने पर शिशु एक भिन्न वातावरण में आ पड़ता है। वह खाना कुछ चाहता है, किन्तु मिलता उसे कुछ दूसरा ही है, क्योंकि लोग असली माँग नहीं समझ पाते और उसे जो कुछ दिया जाता है उसे वह इनकार भी नहीं कर पाता। कभी-कभी शिशु माता के दूध के लिए रोता है, किन्तु धाय सोचती है कि उसके पेट में दर्द होगा जिससे वह रो रहा है, अत: वह उसे कड़वी दवा लाकर देती है। शिशु उसे पसन्द नहीं करता, किन्तु उसे मना भी नहीं कर सकता। इस तरह वह अत्यन्त विषम परिस्थिति में पड़ जाता है और उसके कष्ट बढ़ते ही जाते हैं।
 
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