श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  3.31.28 
इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दु:खं पौगण्डमेव च ।
अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानादिद्धमन्यु: शुचार्पित: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
इति एवम्—इस प्रकार से; शैशवम्—बाल्यकाल को; भुक्त्वा—बिताकर; दु:खम्—दुख को; पौगण्डम्— किशोरावस्था को; एव—ही; च—तथा; अलब्ध—अप्राप्त; अभीप्सित:—जिसकी इच्छाएँ; अज्ञानात्—अज्ञानवश; इद्ध—प्रज्ज्वलित; मन्यु:—क्रोध; शुचा—शोक से; अर्पित:—अभिभूत, संतप्त ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार विविध प्रकार के कष्ट भोगता हुआ शिशु अपना बाल्यकाल बिता कर किशोरवस्था प्राप्त करता है। किशोरावस्था में भी वह अप्राप्य वस्तुओं की इच्छा करता है, किन्तु उनके न प्राप्त होने पर उसे पीड़ा होती है। इस प्रकार अज्ञान के कारण वह क्रुद्ध तथा दुखित होता है।
 
तात्पर्य
 जन्म से लेकर पाँच वर्ष की अवस्था बाल्यकाल कहलाती है और पाँच वर्ष से पन्द्रह वर्ष की अवस्था किशोरावस्था कहलाती है। सोलह वर्ष से युवास्था प्रारम्भ होती है। बाल्यकाल के कष्टों का वर्णन हो चुका है, किन्तु जब बालक किशोरावस्था प्राप्त करता है, तो उसका नाम पाठशाला में लिखा दिया जाता है, जिसे वह नहीं चाहता। वह तो खेलना चाहता है, किन्तु उसे जबरन पाठशाला भेजा जाता हैं जहाँ वह पढ़े और परीक्षाएँ दे। दूसरा कष्ट यह है कि वह कुछ ऐसी वस्तुएँ चाहता है जिनसे खेले, किन्तु परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती हैं कि वह उन्हें नहीं प्राप्त कर पाता। इस तरह वह दुखी होता है और उसे पीड़ा होती है। एक शब्द में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि वह अपने बाल्यकाल की ही तरह कुमारावस्था में भी अप्रसन्न रहता है। तरुणावस्था की बात जाने दें। बच्चे खेलने के लिए न जाने कितनी तरह की माँगें प्रस्तुत करते हैं और जब उनको संतोष नहीं मिलता तो वे क्रोध से उबल पड़ते हैं जिसका परिणाम होता है दुख।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥