सह—साथ; देहेन—शरीर के; मानेन—झूठी प्रतिष्ठा से; वर्धमानेन—बढऩे से; मन्युना—क्रोध से; करोति—उत्पन्न करता है; विग्रहम्—शत्रुता, वैर; कामी—विषयी पुरुष; कामिषु—दूसरे विषयी पुरुष के प्रति; अन्ताय—विनाश के लिए; च—तथा; आत्मन:—अपने आत्मा का ।.
अनुवाद
शरीर बढऩे के साथ ही जीव अपने आत्मा को परास्त करने के लिए अपनी झुठी प्रतिष्ठा को तथा क्रोध को बढ़ाता है और इस तरह अपने ही जैसे कामी पुरुषों के साथ वैर उत्पन्न करता है।
तात्पर्य
भगवद्गीता (३.३६) में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से जीव की कामवासना के विषय में प्रश्न किया। यह पूछा कि जब जीव शाश्वत है और इस तरह वह गुणात्मक रूप में परमेश्वर के ही समतुल्य है, तो क्या कारण है कि वह भवसागर में आ गिरता है और माया के वशीभूत हो अनेक पापकर्म करता है? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा कि कामवासना के कारण जीवात्मा उच्च पद से अधम पद पर आ गिरता है। परिस्थितिवश यही कामवासना क्रोध में परिणत हो जाती है। कामवासना तथा क्रोध रजोगुण पद पर स्थित हैं। कामवासना वास्तव में रजोगुण से उत्पन्न होती है और कामेच्छा की तृप्ति न होने पर वह तमोगुण पद पर क्रोध में परिणत हो जाती है। जब अज्ञान आत्मा को आच्छादित कर लेता है, तो जीव नारकीय जीवन की सर्वाधिक अधम स्थिति में आ गिरता है।
अपने को नारकीय जीवन से आध्यात्मिक ज्ञान के सर्वोच्च पद तक उठाने के लिए इस कामवासना को कृष्णप्रेम में परिणत करना होता है। वैष्णव सम्प्रदाय के महान् आचार्य श्री नरोत्तम दास ठाकुर ने कहा है—काम कृष्णकर्मार्पणे—कामवासना के कारण हम इन्द्रियतृप्ति के लिए अनेक वस्तुएँ चाहते हैं, किन्तु इसी वासना को इस प्रकार शुद्ध किया जा सकता है कि हम भगवान् को प्रसन्न करने के लिए सारी इच्छाएँ करें। क्रोध का भी उपयोग ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध किया जा सकता है, जो नास्तिक है या भगवान् से द्वेष रखता है। चूँकि हम काम तथा क्रोध के कारण इस संसार में आ गिरे हैं अत: इन दोनों गुणों का उपयोग कृष्णभक्ति को बढ़ाने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है और मनुष्य पुन: अपना पूर्व शुद्ध आध्यात्मिक पद प्राप्त कर सकता है। अत: श्रील रूप गोस्वामी की संस्तुति है कि चूँकि इस संसार में इन्द्रियतृप्ति की ऐसी अनेक वस्तुएँ हैं, जिनकी आवश्यकता शरीर के पालन के लिए पड़ती है, अत: हमें निष्काम भाव से इन सबका उपयोग कृष्ण की इन्द्रियों की तुष्टि के लिए करना चाहिए। यही वास्तविक त्याग है।
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