भूतै:—भौतिक तत्त्वों के द्वारा; पञ्चभि:—पाँच; आरब्धे—निर्मित; देहे—शरीर में; देही—जीव; अबुध:—अज्ञानी; असकृत्—निरन्तर; अहम्—मैं; मम—मेरा; इति—इस प्रकार; असत्—अस्थायी वस्तुएँ; ग्राह:—स्वीकार करते हुए; करोति—करता है; कु-मति:—मूर्ख होने के कारण; मतिम्—विचार ।.
अनुवाद
ऐसे अज्ञान से जीव पंचतत्त्वों से निर्मित भौतिक शरीर को ‘स्व’ मान लेता है। इस भ्रम के कारण वह क्षणिक वस्तुओं को निजी समझता है और अन्धकारमय क्षेत्र में अपना अज्ञान बढ़ाता है।
तात्पर्य
इस श्लोक में अज्ञान के विस्तार की व्याख्या हुई है। पहला अज्ञान है पंचतत्त्वों से निर्मित अपने शरीर को स्व (आत्मा) मान बैठना और दूसरा है शरीर से सम्बद्ध किसी वस्तु को अपनी निजी समझना। इस प्रकार अज्ञान का विस्तार होता जाता है। जीव शाश्वत है, किन्तु क्षणिक वस्तुओं को स्वीकार करते रहने, अपने हित की बात ठीक से न समझ पाने से वह अज्ञान को प्राप्त होता है, अत: उसे भौतिक यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं।
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