भगवद्गीता में कहा गया है कि यज्ञ अथवा विष्णु को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य को कर्म करना पड़ता है, क्योंकि जो भी कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के अभिप्राय से नहीं किया जाता वह बन्धन का कारण होता है। बद्ध अवस्था में जीव अपने आपको शरीर मानकर भगवान् से अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है और अपने शरीर के स्वार्थ के लिए कर्म करता है। वह शरीर को ‘स्व’ मान लेता है, वह अपने शारीरिक विस्तारों को, अपने परिजन तथा अपनी जन्मभूमि को पूज्य मान लेता है। इस प्रकार वह सभी प्रकार के दुश्चिन्त्य कर्म करता रहता है, जिससे विभिन्न योनियों में जन्म-मरण के बन्धन में बँध जाता है। आधुनिक सभ्यता में देहात्मबुद्धि के कारण तथाकथित सामाजिक, राष्ट्रीय तथा सरकारी नेता जनता को अधिकाधिक गुमराह करते हैं फलस्वरूप सारे नेता तथा उनके साथ ही उनके अनुयायी जन्म-जन्मान्तर के लिए नारकीय अवस्था में जा गिरते हैं। श्रीमद्भागवत में एक दृष्टान्त मिलता है। अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना:—जब कोई अन्धा व्यक्ति अनेक ऐसे ही अंधे व्यक्तियों का मार्गदर्शन करता है, तो परिणाम यह निकलता है कि वे सभी गड्ढे में गिर जाते हैं।
वास्तव में यही हो रहा है। भोलीभाली जनता का पथप्रदर्शन करने वाले अनेक नेता हैं, किन्तु उनमें से हर एकनेता देहात्मबुद्धि से मोहग्रस्त है, अत: मानव समाज में शान्ति तथा सम्पन्नता का अभाव है। तरह-तरह के आसन दिखलाने वाले तथाकथित योगी भी इसी श्रेणी में आते हैं, क्योंकि हठयोग उन लोगों के लिए बनाया गया है, जो नितान्त देहात्मबुद्धि में पड़े हुए हैं। निष्कर्ष यह निकला कि जो देहात्मबुद्धि में स्थिर है उसे जन्म-मृत्यु भोगने होते हैं।