श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.31.32 
यद्यसद्‌भि: पथि पुन: शिश्नोदरकृतोद्यमै: ।
आस्थितो रमते जन्तुस्तमो विशति पूर्ववत् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
यदि—यदि; असद्भि:—बुरों के साथ; पथि—मार्ग पर; पुन:—फिर से; शिश्न—लिंग के लिए; उदर—पेट के लिए; कृत—किया गया; उद्यमै:—जिसके प्रयास; आस्थित:—संगति करते हुए; रमते—भोग करता है; जन्तु:—जीव; तम:—अन्धकार; विशति—प्रवेश करता है; पूर्व-वत्—पहले की तरह ।.
 
अनुवाद
 
 अत: यदि जीव विषय-भोग में लगे हुए ऐसे कामी पुरुषों से प्रभावित होकर, जो स्त्रीसंग-सुख व स्वाद की तुष्टि में ही रत हैं, असत् मार्ग का अनुसरण करता है, तो वह पहले की तरह पुन: नरक को जाता है।
 
तात्पर्य
 यह बताया जा चुका है कि बद्धजीव को अन्धतामिस्र तथा तामिस्र नरकों में डाला जाता है और वहाँ पर कष्ट उठाने के बाद उसे कुत्ता या शूकर का नारकीय शरीर प्राप्त होता है। ऐसे जन्मों के पश्चात् वह पुन: मनुष्य शरीर प्राप्त करता है। कपिलदेव ने यह भी बताया है कि मनुष्य किस प्रकार जन्म लेता है। मनुष्य पहले माता के गर्भ में बढ़ता है, कष्ट पाता है और पुन: बाहर आता है। यदि इतने कष्टों के बाद उसे मनुष्य शरीर प्राप्त हो और यदि वह अपना अमूल्य समय ऐसे लोगों की संगति में नष्ट करे जिनका सम्बन्ध विषयी जीवन तथा चटपटे भोजन से ही हो तो सहज ही वह पुन: उन्हीं अन्धतामिस्र तथा तामिस्र नरकों में जाता है।

सामान्यत: लोग अपनी जीभ का स्वाद तथा काम की तुष्टि चाहते हैं। यही भौतिक जीवन है। भौतिक जीवन का अर्थ है खाओ, पीओ और मौज करो; अपनी आध्यात्मिक पहचान तथा आध्यात्मिक उन्नति की किसी को परवाह नहीं रहती। चूँकि भौतिकतावादी लोग जीभ, पेट तथा शिश्न से ही अपना सम्बन्ध रखते हैं, अत: यदि कोई आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करना चाहता है, तो उसे ऐसे लोगों की संगति से सावधान रहना चाहिए। ऐसे लोगों की संगति करने का अर्थ है मनुष्य-रूपी अपने जीवन की जानबूझकर हत्या करना। अत: यह कहा गया है कि बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह अवांछित संगति का परित्याग करके साधु पुरुषों से ही सदा मिले-जुले। साधु पुरुषों की संगति में रहने से जीवन के आध्यात्मिक विस्तार सम्बन्धी सारे सन्देह उन्मूलित हो जाते हैं और वह आध्यात्मिक ज्ञान के पथ पर यथेष्ठ प्रगति करता है। कभी-कभी यह देखा जाता है कि कुछ लोग विशेष प्रकार के धार्मिक विश्वास के प्रति आसक्त होते हैं। हिन्दू, मुसलमान तथा ईसाई अपने-अपने धर्मों के प्रति श्रद्धावान होते हैं और वे मन्दिर-मस्जिद तथा गिरजाघरों में जाते हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश वे ऐसे लोगों की संगति नहीं छोड़ पाते जिनकी लत विषयी जीवन तथा स्वाद-तुष्टि के प्रति है। यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि भले ही कोई कितना ही धार्मिक क्यों न हो, किन्तु यदि वह ऐसे व्यक्तियों की संगति करता है, तो वह गहनतम नरक को जाता है।

 
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