तेष्वशान्तेषु मूढेषु खण्डितात्मस्वसाधुषु ।
सङ्गं न कुर्याच्छोच्येषु योषित्क्रीडामृगेषु च ॥ ३४ ॥
शब्दार्थ
तेषु—उन; अशान्तेषु—अभद्र; मूढेषु—मूर्खों की; खण्डित-आत्मसु—आत्म-साक्षात्कार से रहित; असाधुषु—दुष्टों की; सङ्गम्—संगति; न—नहीं; कुर्यात्—करे; शोच्येषु—शोचनीय; योषित्—स्त्रियों का; क्रीडा-मृगेषु—नाचने वाला कुत्ता; च—तथा ।.
अनुवाद
मनुष्य को चाहिए कि ऐसे अभद्र (अशान्त) मूर्ख की संगति न करे जो आत्म- साक्षात्कार के ज्ञान से रहित हो और स्त्री के हाथों का नाचने वाला कुत्ता बन कर रह गया हो।
तात्पर्य
ऐसे मूर्ख व्यक्तियों की संगति पर प्रतिबन्ध उन लोगों के लिए हैं, जो कृष्णभक्ति में प्रगति करना चाहते हैं। कृष्णभक्ति की दिशा में प्रगति करने के लिए सत्य, शौच, दया, गम्भीरता, बुद्धि, सरलता, भौतिक ऐश्वर्य, यश, क्षमा तथा शम और दम आवश्यक हैं। कृष्णभक्ति की प्रगति के साथ ये सारे गुण प्रकट होने चाहिए, किन्तु यदि कोई किसी शूद्र या ऐसे मूर्ख व्यक्ति की संगति करे जो स्त्री के हाथों में नाचते कुत्ते की तरह हो तो वह प्रगति नहीं कर सकता। भगवान् चैतन्य ने सलाह दी है कि कृष्णभक्ति में लगे हुए व्यक्ति तथा भौतिक अविद्या को पार करने के इच्छुक व्यक्ति को ऐसी स्त्रियों या पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिए जो भौतिक सुखोपभोग में रुचि रखते हों। कृष्णभक्ति में प्रगति चाहने वाले व्यक्ति के लिए ऐसी संगति आत्मघात से भी घातक है।
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