ताम्—भगवान् की माया को; आत्मन:—अपना; विजानीयात्—जाने; पति—स्वामी; अपत्य—संतान; गृह—घर; आत्मकम्—से युक्त; दैव—भगवान् की कृपा से; उपसादितम्—लाई हुई; मृत्युम्—मृत्यु; मृगयो:—बहेलिया, शिकारी का; गायनम्—गाते हुए; यथा—जिस प्रकार ।.
अनुवाद
अतएव स्त्री को अपने पति, घरबार और अपने बच्चों को उसकी मृत्यु के लिए भगवान् की बहिरंगा शक्ति की व्यवस्था के रूप में मानना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे शिकारी की मधुर तान हिरन के लिए मृत्यु होती है।
तात्पर्य
कपिलदेव द्वारा दिये गये इन उपदेशों में यह बताया गया है कि न केवल स्त्री ही नरक का द्वार है, अपितु पुरुष भी स्त्री के लिए नरक का द्वार है। प्रश्न आसक्ति का है। मनुष्य स्त्री की सेवा, उसके सौन्दर्य तथा अन्य बातों से आसक्त होता है। इसी प्रकार स्त्री पुरुष के प्रति इसलिए आसक्त होती है, क्योंकि वह उसे रहने के लिए स्थान, पहनने के लिए कपड़े तथा आभूषण और सन्तान देता है। यह तो एक दूसरे के प्रति आसक्ति का प्रश्न है। जब तक इनमें से कोई भी ऐसे भौतिक सुखों के लिए अनुरक्त रहेगा, तब तक पुरुष स्त्री के लिए और स्त्री पुरुष के लिए घातक है। किन्तु यदि यही आसक्ति कृष्ण में स्थानान्तरित हो जाय तो दोनों कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं और उनका संयोग उत्तम रहता है। अत: श्रीलरूप गोस्वामी की संस्तुति है : अनासक्तस्य विषयान्यथार्हमुपयुञ्जत:।
निर्बन्ध: कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते ॥
(भक्तिरसामृतसिंधु १.२.२५५) स्त्री तथा पुरुष को गृहस्थ के रूप में साथ-साथ रहते हुए कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। यदि इस सेवा में बच्चे, पत्नी, पति सभी लग जाँय तो ये सारी शारीरिक या भौतिक व्याधियाँ समाप्त हो जाँय। चूँकि चेतना शुद्ध है और कृष्ण माध्यम हैं, अत: पतन की कोई सम्भावना नहीं रहती।
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