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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  3.31.43 
देहेन जीवभूतेन लोकाल्लोकमनुव्रजन् ।
भुञ्जान एव कर्माणि करोत्यविरतं पुमान् ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
देहेन—शरीर के कारण; जीव-भूतेन—जीव द्वारा अधिकृत; लोकात्—एक लोक से; लोकम्—दूसरे लोक को; अनुव्रजन्—घूमते हुए; भुञ्जान:—भोग करते हुए; एव—इस प्रकार; कर्माणि—सकाम कर्म; करोति—करता है; अविरतम्—निरन्तर; पुमान्—जीव ।.
 
अनुवाद
 
 विशेष प्रकार का शरीर होने के कारण भौतिकतावादी जीव अपने कर्मों के अनुसार एक लोक से दूसरे लोक में भटकता रहता है। इसी प्रकार वह अपने आपको सकाम कर्मों में लगा लेता है और निरन्तर फल का भोग करता है।
 
तात्पर्य
 जब जीव शरीर के भीतर बन्दी रहता है, तो वह जीवभूत कहलाता है और जब वह शरीर से मुक्त रहता है, तो ब्रह्मभूत कहलाता है। एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में शरीर बदलता हुआ जीव न केवल विभिन्न योनियों में घूमता रहता है, अपितु एक लोक से दूसरे लोक में भी जाता रहता है। भगवान् चैतन्य कहते हैं कि सकाम कर्मों से बँधकर जीवात्माएँ सारे ब्रह्माण्ड में भटकती रहती हैं और यदि सौभाग्यवश या किसी पुण्य कर्म के कारण वे प्रामाणिक गुरु के सम्पर्क में आती हैं, तो कृष्ण की कृपा से उन्हें भक्ति का बीज प्राप्त होता है। यदि कोई जीव इस बीज को पाकर उसे अपने हृदय में बोता है और श्रवण तथा कीर्तन रूपी जल से इसे सींचता है, तो यह बीज उगकर एक वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। इसमें जो फूल और फल लगते हैं उन्हें जीव इसी जगत में भी भोग सकता है। यह ब्रह्मभूत अवस्था कहलाती है। इस उपाधियुक्त अवस्था में जीव भौतिकतावादी कहलाता है। किन्तु जब वह समस्त उपाधियों से मुक्त होकर पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होकर सेवा में लगा रहता है, तो मुक्त कहलाता है। जब तक भगवान् की कृपा से प्रामाणिक गुरु की संगति नहीं प्राप्त होती तब तक विभिन्न योनियों में जन्म तथा मृत्यु के चक्र तथा विभिन्न प्रकार के लोकों में घूमने से छुटकारे की कोई सम्भावना नहीं रहती।
 
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