श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  3.31.44 
जीवो ह्यस्यानुगो देहो भूतेन्द्रियमनोमय: ।
तन्निरोधोऽस्य मरणमाविर्भावस्तु सम्भव: ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
जीव:—जीव; हि—निस्सन्देह; अस्य—उसका; अनुग:—उपयुक्त; देह:—शरीर; भूत—स्थूल तत्त्व; इन्द्रिय—इन्द्रियाँ; मन:—मन; मय:—से निर्मित; तत्—शरीर का; निरोध:—विनाश; अस्य—जीव का; मरणम्—मृत्यु; आविर्भाव:— प्राकट्य; तु—तब; सम्भव:—जन्म ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार सकाम कर्मों के अनुसार जीवात्मा को मन तथा इन्द्रियों से युक्त उपयुक्त शरीर प्राप्त होता है। जब किसी कर्म का फल चुक जाता है, तो इस अन्त को मृत्यु कहते हैं और जब कोई फल प्रारम्भ होता है, तो उस शुभारम्भ को जन्म कहते हैं।
 
तात्पर्य
 अनन्त काल से जीव विविध योनियों में तथा लोकों में निरन्तर घूमता रहा है। भगवद्गीता में इस प्रक्रम की व्याख्या हुई है। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया—माया के वश में होकर प्रत्येक व्यक्ति माया द्वारा प्रदत्त शरीर के रथ पर चढक़र ब्रह्माण्ड भर में घूमता रहता है। भौतिकतावादी जीवन में कर्म तथा फल की शृंखला रहती है। यह कर्म तथा फल की एक लम्बी रील है और एक जीवन-अवधि एक दमक (फ्लैश) के तुल्य है। जब बच्चा जन्म लेता है, तो समझना चाहिए कि उसका शरीर सर्वथा नवीन कार्यकलापों का शुभारम्भ है और जब वृद्ध पुरुष मरता है, तो समझना चाहिए कि कर्मफल का अन्त हो गया।

हम देखते हैं कि विभिन्न कर्मफलों के कारण कोई सम्पन्न परिवार में जन्म लेता है, तो कोई निर्धन परिवार में, यद्यपि दोनों एक ही स्थान में, एक समय और एक वातावरण में जन्म लेते हैं। जो पुण्यकर्म करता है उसे समृद्ध या पुण्य परिवार में जन्म लेने का अवसर प्रदान किया जाता है और जो पापकर्म करता है उसे निम्न निर्धन परिवार में जन्म लेने दिया जाता है। शरीर के परिवर्तन से कार्यक्षेत्र बदल जाता है। इसी प्रकार जब बालक का शरीर तरुण शरीर में बदलता है, तो बालकपन के कार्य युवावस्था के कार्यकलापों में बदल जाते हैं।

यह स्पष्ट है कि विशेष प्रकार का कर्म करने से जीव को विशेष शरीर प्राप्त होता है। यह क्रिया अनन्त काल से चलती आ रही है। अत: वैष्णव कवि कहते हैं—अनादि कर्मफले— जिसका तात्पर्य यह है कि किसी के कर्मों तथा फलों का पता नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि वे ब्रह्मा के जन्म के कल्प से लेकर अगले कल्प तक चलते रहेंगे। हमने नारद मुनि के जीवन में इसको देखा। एक कल्प में वे दासी के पुत्र थे और दूसरे में वे ऋषि हो गये।

 
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