अनन्त काल से जीव विविध योनियों में तथा लोकों में निरन्तर घूमता रहा है। भगवद्गीता में इस प्रक्रम की व्याख्या हुई है। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया—माया के वश में होकर प्रत्येक व्यक्ति माया द्वारा प्रदत्त शरीर के रथ पर चढक़र ब्रह्माण्ड भर में घूमता रहता है। भौतिकतावादी जीवन में कर्म तथा फल की शृंखला रहती है। यह कर्म तथा फल की एक लम्बी रील है और एक जीवन-अवधि एक दमक (फ्लैश) के तुल्य है। जब बच्चा जन्म लेता है, तो समझना चाहिए कि उसका शरीर सर्वथा नवीन कार्यकलापों का शुभारम्भ है और जब वृद्ध पुरुष मरता है, तो समझना चाहिए कि कर्मफल का अन्त हो गया। हम देखते हैं कि विभिन्न कर्मफलों के कारण कोई सम्पन्न परिवार में जन्म लेता है, तो कोई निर्धन परिवार में, यद्यपि दोनों एक ही स्थान में, एक समय और एक वातावरण में जन्म लेते हैं। जो पुण्यकर्म करता है उसे समृद्ध या पुण्य परिवार में जन्म लेने का अवसर प्रदान किया जाता है और जो पापकर्म करता है उसे निम्न निर्धन परिवार में जन्म लेने दिया जाता है। शरीर के परिवर्तन से कार्यक्षेत्र बदल जाता है। इसी प्रकार जब बालक का शरीर तरुण शरीर में बदलता है, तो बालकपन के कार्य युवावस्था के कार्यकलापों में बदल जाते हैं।
यह स्पष्ट है कि विशेष प्रकार का कर्म करने से जीव को विशेष शरीर प्राप्त होता है। यह क्रिया अनन्त काल से चलती आ रही है। अत: वैष्णव कवि कहते हैं—अनादि कर्मफले— जिसका तात्पर्य यह है कि किसी के कर्मों तथा फलों का पता नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि वे ब्रह्मा के जन्म के कल्प से लेकर अगले कल्प तक चलते रहेंगे। हमने नारद मुनि के जीवन में इसको देखा। एक कल्प में वे दासी के पुत्र थे और दूसरे में वे ऋषि हो गये।