द्रव्य—वस्तुओं की; उपलब्धि—अनुभूति का; स्थानस्य—स्थान का; द्रव्य—वस्तुओं की; ईक्षा—अनुभूति का; अयोग्यता—असमर्थता; यदा—जब; तत्—वह; पञ्चत्वम्—मृत्यु; अहम्-मानात्—‘मैं’ की भ्रान्त धारणा से; उत्पत्ति:—जन्म; द्रव्य—शरीर; दर्शनम्—दर्शन; यथा—जिस प्रकार; अक्ष्णो:—आँखों का; द्रव्य—वस्तुओं का; अवयव—अंग; दर्शन—देखने की; अयोग्यता—असमर्थता; यदा—जब; तदा—तब; एव—निस्सन्देह; चक्षुष:— देखने की इन्द्रिय से; द्रष्टु:—द्रष्टा का; द्रष्टृत्व—देखने की शक्ति का; अयोग्यता—अपात्रता; अनयो:—इन दोनों की ।.
अनुवाद
जब दृष्टि-तंत्रिका के प्रभावित होने से आँखें रंग या रूप को देखने की शक्ति खो देती हैं, तो चक्षु-इन्द्रिय मृतप्राय हो जाती है। तब आँख तथा दृष्टि का द्रष्टा जीव अपनी देखने की शक्ति खो देता है। इसी प्रकार जब भौतिक शरीर, जो वस्तुओं की अनुभूति का स्थल है, अनुभव करना बन्द कर देता है, तो इस अयोग्यता को मृत्यु कहते हैं। जब मनुष्य शरीर को स्व मानने लगता है, तो इसे जन्म कहते हैं।
तात्पर्य
जब कोई कहता है कि मैं देखता हूँ तो इसका अर्थ है कि वह अपनी आँखों से अथवा अपने चश्मे से देखता है। इस तरह वह दृष्टि के उपकरण से देखता है। यदि दृष्टि का यह उपकरण टूट जाय, रुग्ण हो जाय या कार्य करने में अक्षम हो तो द्रष्टा के रूप में वह देखना बन्द कर देता है। इसी प्रकार इस शरीर में इस समय जीव कार्य कर रहा है, किन्तु जब कार्य करने में असमर्थता के कारण वह काम करना बन्द कर देता है, तो उसके कर्मफल भी बन्द हो जाते हैं। जब कार्य का उपकरण टूट जाय और कार्य न किया जा सके तो उसे मृत्यु कहते हैं। इसी प्रकार जब कार्य करने का नया उपकरण प्राप्त होता है, तो उसे जन्म कहते हैं। यह जन्म तथा मृत्यु की क्रिया शरीर में परिवर्तन के कारण प्रतिक्षण चलती रहती है। अन्तिम परिर्वतन मृत्यु कहलाता है और नये शरीर को ग्रहण करना जन्म कहलाता है। जन्म तथा मृत्यु की समस्या का यही हल है। वास्तव में जीव का न तो जन्म होता है, न मृत्यु। वह तो शाश्वत है। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि हुई है—न हन्यते हन्यमाने शरीरे—यह जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु या विनाश के बाद भी कभी नहीं मरता।
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