श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 31: जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  3.31.47 
तस्मान्न कार्य: सन्त्रासो न कार्पण्यं न सम्भ्रम: ।
बुद्ध्वा जीवगतिं धीरो मुक्तसङ्गश्चरेदिह ॥ ४७ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मात्—मृत्यु के कारण; न—नहीं; कार्य:—करना चाहिए; सन्त्रास:—भय; न—नहीं; कार्पण्यम्—कंजूसी; न— नहीं; सम्भ्रम:—लाभ के लिए उत्सकुता; बुद्ध्वा—समझ करके; जीव-गतिम्—जीव के वास्तविक प्रकृति को; धीर:—स्थिर; मुक्त-सङ्ग:—आसक्ति रहित; चरेत्—चलना चाहिए; इह—इस संसार में ।.
 
अनुवाद
 
 अत: मनुष्य को न तो मृत्यु को भयभीत होकर देखना चाहिए, न शरीर को आत्मा मानना चाहिए, न ही जीवन की आवश्यकताओं के शारीरिक भोग को बढ़ा-चढ़ा कर समझना चाहिए। जीव की असली प्रकृति को समझते हुए मनुष्य को आसक्ति से रहित तथा उद्देश्य में दृढ़ होकर संसार में विचरण करना चाहिए।
 
तात्पर्य
 जीवन तथा मृत्यु के दर्शन को समझने वाला कोई भी समझदार व्यक्ति माता के गर्भ में या उसके बाहर के नारकीय जीवन की बात सुनकर विचलित हो उठेगा। किन्तु उसे जीवन की समस्याओं का हल निकालना होता है। समझदार व्यक्ति को इस शरीर की दयनीय स्थिति को समझना चाहिए और बिना विचलित हुए इसका निवारण खोजने का प्रयास करना चाहिए। यह इलाज तभी हाथ लगता है जब किसी मुक्त पुरुष की संगति मिलती है। किन्तु यह समझना होगा कि मुक्त कौन है। भगवद्गीता में मुक्त पुरुष का वर्णन हुआ है—जो प्रकृति के कठोर नियमों को पार करके भगवान् की अखण्डित सेवा में लगा रहता है, वह ब्रह्म में स्थित माना जाता है।

भगवान् भौतिक सृष्टि से ऊपर हैं। यहाँ तक कि शंकराचार्य जैसे निर्विशेषवादियों ने भी स्वीकार किया है कि नारायण इस सृष्टि के परे हैं। अत: जब कोई भगवान् के विविध रूपों— नारायण या राधाकृष्ण या सीताराम—की सेवा में संलग्न रहता है, तो उसे मुक्ति के पद पर माना जाता है। भागवत भी पुष्टि करता है कि मुक्ति का अर्थ स्वाभाविक पद पर स्थित होना है। चूँकि जीवात्मा परमेश्वर का शाश्वत दास है, अत: जब कोई भगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति में लगा होता है, तो वह मोक्ष पद पर स्थित होता है। मनुष्य को चाहिए कि मुक्त पुरुष की संगति करे क्योंकि इससे जन्म तथा मृत्यु रूपी जीवन की समस्या हल हो सकती है।

पूरी तरह कृष्णभावना में भक्ति करते समय मनुष्य को कंजूसी नहीं बरतनी चाहिए। उसे यह व्यर्थ का दिखावा नहीं करना चाहिए कि उसने संसार से वैराग्य ग्रहण कर लिया है। वस्तुत: वैराग्य सम्भव नहीं है। यदि कोई अपना भव्य महल छोडक़र जंगल में चला जाता है, तो यह वैराग्य नहीं है, क्योंकि वह राजसी महल भगवान् की सम्पति है तथा जंगल भी भगवान् की ही सम्पत्ति है। यदि कोई एक सम्पत्ति को छोडक़र दूसरे में चला जाए तो इसको वैराग्य नहीं कहते, क्योंकि वह इन दोनों में से किसी का भी स्वामी नहीं था। वैराग्य के लिए आवश्यक है कि प्रकृति पर प्रभुता जताने वाले झूठे बोध का परित्याग हो। जब वह इस झूठे बोध को तथा अपने इस विचार को कि वह भी ईश्वर है, त्याग देता है, तो वही असली वैराग्य है। अन्यथा वैराग्य कोई अर्थ नहीं रखता। रूप गोस्वामी का उपदेश है कि यदि कोई वस्तु भगवान् की सेवा में प्रयुक्त होने के उपयुक्त है, किन्तु उसका उपयोग इस कार्य के लिए नहीं किया जाता तो यह फल्गु वैराग्य कहलाता है, जिसका अर्थ है अपर्याप्त अथवा झूठा वैराग्य। प्रत्येक वस्तु भगवान् की है, अत: उसका उपयोग भगवान् के लिए करना चाहिए, अपनी इन्द्रियतृप्ति में हमें कुछ भी प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। यही वास्तविक वैराग्य है। किसी को जीवन की आवश्यकताएँ नहीं बढ़ानी चाहिए। भगवान् हमें जो कुछ प्रदान करें उसी से संतुष्ट होना चाहिए। हमें अपना समय कृष्णभावनाभावित होकर भक्ति करने में लगाना चाहिए। जीवन तथा मृत्यु की समस्या का यही समाधान है।

 
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