सही-सही दृष्टि से युक्त तथा भक्ति से पुष्ट होकर एवं भौतिक पहचान के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण से समन्वित होकर मनुष्य को तर्क द्वारा अपना शरीर इस मायामय संसार को गिरवी कर देनी चाहिए। इस तरह वह इस जगत से अपना सम्बन्ध छुड़ा सकता है।
तात्पर्य
कभी-कभी यह भ्रम होता है कि भक्ति में लगे व्यक्तियों की संगति करने से आर्थिक समस्याएँ हल नहीं की जा सकतीं। इस तर्क का उत्तर देने के लिए यहाँ यह बताया गया है कि मनुष्य को मुक्त पुरुषों की प्रत्यक्ष अथवा शरीर से संगति नहीं करनी होगी, अपितु दर्शन तथा तर्क से जीवन की समस्याओं को समझकर करना होगा। यहाँ पर सम्यग्दर्शनया बुद्ध्या का उल्लेख है—मनुष्य को सम्यक रूप से देखना होगा तथा बुद्धि एवं योगाभ्यास से इस संसार का परित्याग करना होगा। यह वैराग्य भागवत के प्रथम स्कंध के द्वितीय अध्याय में वर्णित विधि से प्राप्त किया जा सकता है।
भक्त की बुद्धि सदा भगवान् के सम्पर्क में रहती है। वह इस संसार के प्रति विरक्ति का भाव रखता है, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता रहता है कि यह संसार माया की सृष्टि है। भक्त अपने को परमात्मा का अंश मानकर अपनी भक्तिमय सेवा सम्पन्न करता है और भौतिक कर्म तथा कर्मफल से पृथक् रहता है। इस तरह अन्त में वह अपना शरीर या भौतिक शक्ति को त्याग देता है और शुद्ध आत्मा के रूप में वह ईश्वर के धाम में प्रवेश करता है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “जीवों की गतियों के विषय में भगवान् कपिल के उपदेश” नामक इकतीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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