कृमिभि: क्षतसर्वाङ्ग: सौकुमार्यात्प्रतिक्षणम् ।
मूर्च्छामाप्नोत्युरुक्लेशस्तत्रत्यै: क्षुधितैर्मुहु: ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
कृमिभि:—कीड़ों द्वारा; क्षत—काटे जाने पर; सर्व-अङ्ग:—पूरे शरीर में; सौकुमार्यात्—सुकुमार होने के कारण; प्रति-क्षणम्—क्षण-क्षण; मूर्च्छाम्—अचेत अवस्था को; आप्नोति—प्राप्त करता है; उरु-क्लेश:—महान् कष्ट; तत्रत्यै:—वहाँ (उदर में) रहकर; क्षुधितै:—भूख से; मुहु:—पुन: पुन: ।.
अनुवाद
उदर में भूखे कीड़ों द्वारा शरीर भर में बारम्बार काटे जाने पर शिशु को अपनी सुकुमारता के कारण अत्यधिक पीड़ा होती है। इस भयावह स्थिति के कारण वह क्षण क्षण अचेत होता रहता है।
तात्पर्य
इस संसार की कष्टप्रद स्थिति का अनुभव हमें माता के गर्भ से बाहर निकलने पर ही नहीं, अपितु गर्भ में रहते हुए भी होता है। यह कष्टप्रद जीवन उसी समय से प्रारम्भ हो जाता है जब जीव शरीर से सम्पर्क स्थापित करता है। दुर्भाग्यवश हम इस अनुभव को भूल जाते हैं और जन्म के कष्टों पर गम्भीरता से विचार नहीं करते। अत: भगवद्गीता में विशेष रूप से उल्लेख है कि मनुष्य को जन्म तथा मृत्यु की कठिनाइयों को समझने के प्रति सचेत रहना चाहिए। जिस प्रकार शरीर-निर्माण के समय हमें माता के गर्भ में अनेक कष्ट सहन करने होते हैं उसी प्रकार मृत्यु के समय भी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। जैसाकि पिछले अध्याय में बताया गया है, मनुष्य को एक शरीर से दूसरे में अन्तरण करना होता है और जब कुत्तों तथा सुअरों के शरीर में यह अन्तरण होता है, तो विशेष कष्ट होता है। किन्तु ऐसी कष्टप्रद स्थितियों के होते हुए हम माया के प्रभाव से सब कुछ भूल जाते हैं और वर्तमान तथाकथित सुख द्वारा आकृष्ट होते हैं, जो कष्ट की प्रतिक्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
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