अकल्प: स्वाङ्गचेष्टायां शकुन्त इव पञ्जरे ।
तत्र लब्धस्मृतिर्दैवात्कर्म जन्मशतोद्भवम् ।
स्मरन्दीर्घमनुच्छ्वासं शर्म किं नाम विन्दते ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
अकल्प:—अशक्त; स्व-अङ्ग—अपने अंग; चेष्टायाम्—हिलाने-डुलाने के लिए; शकुन्त:—पक्षी; इव—सदृश; पञ्जरे—पिंजड़े में; तत्र—वहाँ; लब्ध-स्मृति:—स्मृति को प्राप्त करके; दैवात्—भाग्यवश; कर्म—कर्म; जन्म-शत- उद्भवम्—पिछले सौ जन्मों में घटित होने वाले; स्मरन्—याद करके; दीर्घम्—दीर्घकाल तक; अनुच्छ्वासम्—आहें भरना; शर्म—मन को शान्ति; किम्—क्या; नाम—तब; विन्दते—प्राप्त कर सकता है ।.
अनुवाद
इस तरह शिशु पिंजड़े के पक्षी के समान बिना हिले-डुले रह रहा होता है। उस समय, यदि शिशु भाग्यवान हुआ, तो उसे विगत सौ जन्मों के कष्ट स्मरण हो आते हैं और वह दुख से आहें भरता है। भला ऐसी दशा में मन:शान्ति कैसे सम्भव है?
तात्पर्य
जन्म के बाद शिशु भले ही विगत जीवन के कष्टों को भूल जाय, किन्तु जब हम बड़े हो जाते हैं तब श्रीमद्भागवत जैसे प्रामाणिक शास्त्रों को पढक़र इतना तो समझ ही सकते हैं कि जन्म तथा मृत्यु के समय कितनी यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। यदि शास्त्रों में हमारा विश्वास नहीं है, तो अलग बात है, किन्तु यदि ऐसे शास्त्रों के प्रमाण पर हमारा विश्वास है, तो हमें अगले जन्म में इससे मुक्त होने की तैयारी करनी चाहिए। ऐसा इसी मनुष्य जीवन में सम्भव है। जो इन संकेतों की परवाह नहीं करता वह आत्मघात करता है। कहा गया है कि मनुष्य-जीवन ही माया के अन्धकार को या भवसागर को पार करने का एकमात्र साधन है। हमारे पास यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त सक्षम नाव के समान है और गुरु ही इसका अत्यन्त दक्ष कप्तान है, शास्त्रीय आदेश अनुकूल हवाओं के समान है। यदि इन सारी सुविधाओं के रहते हुए भी हम अज्ञान के सागर को पार नहीं कर पाते तो हम जानबूझ कर आत्मघात कर रहे होते हैं।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.