श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  3.32.10 
एवं परेत्य भगवन्तमनुप्रविष्टा
ये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागा: ।
तेनैव साकममृतं पुरुषं पुराणं
ब्रह्म प्रधानमुपयान्त्यगताभिमाना: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; परेत्य—दूर तक जाकर; भगवन्तम्—भगवान् ब्रह्मा; अनुप्रविष्टा:—प्रविष्ट; ये—जो; योगिन:— योगीजन; जित—वश में किये हुए; मरुत्—श्वास; मनस: विरागा:—विरक्त; तेन—ब्रह्मा से; एव—निस्सन्देह; साकम्—साथ; अमृतम्—आनन्द रूप; पुरुषम्—भगवान् को; पुराणम्—प्राचीनतम; ब्रह्म प्रधानम्—परब्रह्म; उपयान्ति—जाते हैं; अगत—न गये हुए; अभिमाना:—जिनका अहंकार ।.
 
अनुवाद
 
 जो योगी प्राणायाम तथा मन-निग्रह द्वारा इस संसार से विरक्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक पहुँचते हैं, जो बहुत ही दूर है। वे अपना शरीर त्याग कर ब्रह्मा के शरीर में प्रविष्ट होते हैं, अत: जब ब्रह्मा को मोक्ष प्राप्त होता है और वे भगवान् के पास जाते हैं, जो परब्रह्म हैं, तो ऐसे योगी भी भगवद्धाम में प्रवेश करते हैं।
 
तात्पर्य
 योगसिद्धि प्राप्त करने के बाद योगी ब्रह्मलोक या सत्यलोक पहुँच सकते हैं और अपना शरीर त्यागने के बाद वे ब्रह्मा के शरीर में प्रविष्ट करते हैं। चूँकि वे भगवान् के प्रत्यक्ष भक्त नहीं होते, अत: इन्हें सीधे मोक्ष नहीं मिलता। इन्हें ब्रह्मा के मोक्ष पाने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है और ये ब्रह्मा के साथ ही मुक्त हो पाते हैं। यह स्पष्ट है कि जब तक जीव किसी अन्य देवता की उपासना करता है, तो उसकी चेतना उसी देवता में लीन रहती है, अत: वे न तो प्रत्यक्ष मोक्ष प्राप्त करते हैं अथवा भगवद्धाम में प्रवेश कर पाते हैं, न ही भगवान् के निराकार तेज में लीन हो पाते हैं। ऐसे योगी या देवता-उपासकों को पुन: सृष्टि होने पर फिर से जन्म लेना पड़ता है।
 
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