श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 12-15
 
 
श्लोक  3.32.12-15 
आद्य: स्थिरचराणां यो वेदगर्भ: सहर्षिभि: ।
योगेश्वरै: कुमाराद्यै: सिद्धैर्योगप्रवर्तकै: ॥ १२ ॥
भेदद‍ृष्टय‍ाभिमानेन नि:सङ्गेनापि कर्मणा ।
कर्तृत्वात्सगुणं ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥ १३ ॥
स संसृत्य पुन: काले कालेनेश्वरमूर्तिना ।
जाते गुणव्यतिकरे यथापूर्वं प्रजायते ॥ १४ ॥
ऐश्वर्यं पारमेष्ठ्यं च तेऽपि धर्मविनिर्मितम् ।
निषेव्य पुनरायान्ति गुणव्यतिकरे सति ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
आद्य:—स्रष्टा, ब्रह्मा; स्थिर-चराणाम्—जड़ तथा जंगम का; य:—जो; वेद-गर्भ:—वेदगर्भ; सह—साथ; ऋषिभि:—ऋषियों के; योग-ईश्वरै:—महान् योगियों के साथ; कुमार-आद्यै:—कुमारगण तथा अन्य; सिद्धै:—सिद्ध पुरुषों के साथ; योग-प्रवर्तकै:—योग पद्धति के जन्मदाता; भेद-दृष्ट्या—स्वतन्त्र दृष्टि के कारण; अभिमानेन—गर्व से; नि:सङ्गेन—निष्काम; अपि—यद्यपि; कर्मणा—कार्यों से; कर्तृत्वात्—कर्ता होने के भाव से; स-गुणम्—दैवी गुणों से युक्त; ब्रह्म—ब्रह्म; पुरुषम्—भगवान्; पुरुष-ऋषभम्—प्रथम पुरुष अवतार को; स:—वह; संसृत्य—प्राप्त करके; पुन:—फिर; काले—समय पर; कालेन—काल द्वारा; ईश्वर-मूर्तिना—भगवान् का रूप; जाते गुण व्यतिकरे—जब गुणों की प्रतिक्रिया होती है; यथा—जिस तरह; पूर्वम्—पहले; प्रजायते—उत्पन्न होता है; ऐश्वर्यम्— ऐश्वर्य; पारमेष्ठ्यम्—राजोचित; च—तथा; ते—ऋषिगण; अपि—भी; धर्म—अपने पुण्य कर्मों से; विनिर्मितम्—उत्पन्न; निषेव्य—भोगा जाकर; पुन:—फिर; आयान्ति—लौटते हैं; गुण-व्यतिकरे सति—जब गुणों की प्रतिक्रिया होती है ।.
 
अनुवाद
 
  हे माता, भले ही कोई किसी विशेष स्वार्थ से भगवान् की पूजा करे, किन्तु ब्रह्मा जैसे देवता, सनत्कुमार जैसे ऋषि-मुनि तथा मरीचि जैसे महामुनि सृष्टि के समय इस जगत में पुन: लौट आते हैं। जब प्रकृति के तीनों गुणों की अन्त:क्रिया प्रारम्भ होती है, तो काल के प्रभाव से इस दृश्य जगत के स्रष्टा तथा वैदिक ज्ञान से पूर्ण ब्रह्मा एवं आध्यात्मिक मार्ग तथा योग-पद्धति के प्रवर्तक बड़े-बड़े ऋषि वापस आ जाते हैं। वे अपने निष्काम कर्मों से मुक्त तो हो जाते हैं और पुरुष के प्रथम अवतार (आदि पुरुष) को प्राप्त होते हैं, किन्तु सृष्टि के समय वे पुन: अपने पहले के ही रूपों तथा पदों में वापस आ जाते हैं।
 
तात्पर्य
 यह सभी जानते हैं कि ब्रह्मा को मुक्ति मिलती है, किन्तु वे भक्तों को मुक्ति नहीं दिला सकते। ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवता किसी जीव को मुक्ति नहीं दे सकते। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि हुई है, केवल वे ही माया के पाश से मुक्त होते हैं जिन्होंने कृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है। यहाँ ब्रह्मा को आद्य: स्थिर-चराणाम् कहा गया है। वे मूल, प्रथम उत्पन्न जीव थे और वे अपने जन्म के बाद सम्पूर्ण दृश्य जगत की उत्पत्ति करने वाले हैं। सृष्टि के सम्बन्ध में परमेश्वर ने उन्हें भलीभाँति शिक्षा दी थी। यहाँ पर उन्हें वेदगर्भ कहा गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि वे वेदों के पूर्ण उद्देश्य को जानते हैं। उनके साथ मरीचि, कश्यप जैसे महापुरुष तथा सप्तर्षि, योगी, कुमार तथा अन्य अध्यात्म में बढ़े-चढ़े जीव रहते हैं, किन्तु उनका ईश्वर से पृथक् निजी स्वार्थ रहता है। भेद-दृष्ट्या का अर्थ है कि ब्रह्माजी कभी-कभी सोचते हैं कि वे परमेश्वर से स्वतन्त्र हैं या कि वे अपने को तीन स्वतन्त्र अवतारों में से एक मानते हैं। ब्रह्मा को सृष्टि करने, विष्णु को पालन करने और रुद्र या शिवजी को संहार करने का कार्य सौंपा गया है। ये तीनों परमेश्वर के अवतार समझे जाते हैं, जो तीन भिन्न गुणों के अधिष्ठाता हैं, किन्तु इन तीनों में से कोई भी भगवान् से स्वतन्त्र नहीं है। यहाँ पर इसीलिए भेद-दृष्ट्या शब्द आया है, क्योंकि ब्रह्माजी कुछ-कुछ सोचते हैं कि वे रुद्र के समान स्वतन्त्र हैं। कभी-कभी ब्रह्माजी अपने को स्वतन्त्र मानते हैं और उनके उपासक भी ब्रह्माजी को स्वतन्त्र मानते हैं। इसीलिए इस जगत के संहार के बाद, जब तीनों गुणों की पारस्परिक क्रिया से पुन: सृष्टि होती है, तो ब्रह्मा वापस आते हैं। यद्यपि ब्रह्माजी प्रथम पुरुषावतार महाविष्णु के पास पहुँच जाते हैं, किन्तु वे वैकुण्ठ में ठहर नहीं सकते।

उनके वापस आने की विशेष महत्ता दृष्टव्य है। ब्रह्मा, महान् ऋषिगण तथा योग के महान् स्वामी (शिव) सामान्य जीव नहीं हैं, वे सभी अत्यन्त शक्तिमान हैं और समस्त योग-सिद्धियों से पूर्ण हैं। फिर भी वे परब्रह्म के साथ एकाकार होना चाहते हैं, अत: उन्हें वापस आना पड़ता है। श्रीमद्भागवत में यह स्वीकार किया गया है कि जब तक मनुष्य अपने को भगवान् के समान सोचता है तब तक वह पूर्णतया शुद्ध या ज्ञेय नहीं रहता। प्रलय के बाद ऐसे लोग प्रथम पुरुष अवतार महाविष्णु के पास तक जाकर भी पुन: इस संसार में वापस आते हैं।

निर्विशेषवादियों का यह सोचना उनका घोर पतन है कि परमेश्वर भौतिक शरीर के भीतर प्रकट होते हैं, अत: परमेश्वर के स्वरूप-चिन्तन की कोई आवश्यकता नहीं है, अपितु निराकार का चिन्तन करना चाहिए। इसी भूल के कारण बड़े से बड़े योगी या अध्यात्मवादी भी पुन: सृष्टि होने पर वापस आते हैं। निर्विशेषवादियों एवं अद्वैतवादियों के अतिरिक्त सभी जीव पूर्ण कृष्णचेतना में रहकर भक्ति करते हैं और भगवान् के लिए दिव्य प्रेमा-भक्ति उत्पन्न करके मुक्त हो जाते हैं। ऐसी भक्ति परमेश्वर को स्वामी, सखा, पुत्र तथा प्रेमी के रूप में सोचने पर क्रमश: उत्पन्न होती है। ऐसे अन्तर तो सदैव उपस्थित ही रहेंगे।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥