श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  3.32.16 
ये त्विहासक्तमनस: कर्मसु श्रद्धयान्विता: ।
कुर्वन्त्यप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्स्‍नश: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
ये—जो; तु—लेकिन; इह—इस संसार में; आसक्त—अनुरक्त; मनस:—जिनके मन; कर्मसु—कर्मों में; श्रद्धया— श्रद्धा से; अन्विता:—युक्त; कुर्वन्ति—करते हैं; अप्रतिषिद्धानि—फल के प्रति आसक्ति सहित, काम्य; नित्यानि— नियत कर्म; अपि—निश्चय ही; च—तथा; कृत्स्नश:—बारम्बार ।.
 
अनुवाद
 
 जो लोग इस संसार के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं, वे अपने नियत कर्मों को बड़े ही ढंग से तथा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते हैं। वे ऐसे नित्यकर्मों को कर्मफल की आशा से करते हैं।
 
तात्पर्य
 भागवत के इस श्लोक में तथा अगले छह श्लोकों में अत्यधिक आसक्त लोगों की आलोचना हुई है। शास्त्रों का आदेश है कि जो भौतिक सुखों को भोगने में अत्यधिक अनुरक्त होते हैं उन्हें इनका परित्याग करके कुछ अनुष्ठान करने होते हैं। उन्हें स्वर्ग पहुँचने के लिए दैनिक जीवन में कुछ विधि-विधानों का पालन करना होता है। इस श्लोक में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति कभी भी मुक्त नहीं हो सकते। जो लोग इस भावना से देवताओं की पूजा करते हैं कि हर देवता पृथक् ईश्वर है वे कभी भी वैकुण्ठ नहीं जा पाते, उन लोगों की बात तो दूर रही जो अपनी भौतिक दशा सुधारने के लिए केवल कर्म करते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥