स चापि भगवद्धर्मात्काममूढ: पराङ्मुख: ।
यजते क्रतुभिर्देवान्पितृंश्च श्रद्धयान्वित: ॥ २ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; च अपि—और भी; भगवत्-धर्मात्—भक्ति से; काम-मूढ:—कामवासना से अन्धा; पराक्-मुख:— पराङ्मुख, से मुख मोडक़र; यजते—पूजा करता है; क्रतुभि:—यज्ञों से; देवान्—देवताओं की; पितृन्—पूर्वजों की; च—तथा; श्रद्धया—श्रद्धा से; अन्वित:—युक्त ।.
अनुवाद
ऐसे व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति के प्रति अत्यधिक आसक्त होने के कारण भक्ति से विहीन होते हैं, अत: अनेक प्रकार के यज्ञ करते रहने तथा देवों एवं पितरों को प्रसन्न करने के लिए बड़े-बड़े व्रत करते रहने पर भी वे कृष्णभावनामृत अर्थात् भक्ति में रुचि नहीं लेते।
तात्पर्य
भगवद्गीता (७.२०) में कहा गया है कि जो व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं उनकी बुद्धि भ्रष्ट रहती है—कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना:। वे इन्द्रियतृप्ति के प्रति अत्यधिक आकृष्ट रहते हैं, फलत: वे देवताओं को पूजते हैं। निस्सन्देह वैदिक शास्त्रों में संस्तुति की गई है कि जो धन, स्वास्थ्य या विद्या का इच्छुक हो उसे देवताओं का पूजन करना चाहिए। भौतिकतावादी व्यक्ति की माँगें अनेक हैं, अत: उसकी इन्द्रियों को तुष्ट करने वाले देवता भी अनेक हैं। जो ‘गृहमेधी’ समृद्ध जीवन बिताना चाहते हैं, वे सामान्यतया पिण्ड-दान द्वारा देवताओं या पितरों को पूजते हैं। ऐसे व्यक्ति कृष्णभावनामृत से विहीन होते हैं और भगवान् की भक्तिमय सेवा करने में रुचि नहीं लेते। इस प्रकार का तथाकथित पवित्र तथा धार्मिक व्यक्ति निराकारवाद का प्रतिफल है। निर्विशेषवादियों की धारणा है कि परम सत्य के कोई रूप नहीं होता। अत: अपने लाभ के लिए, चाहे जिस रूप की कल्पना करके उसकी पूजा कर ली जाय। अत: ‘गृहमेधी’ या भौतिकतावादी व्यक्ति कहते हैं कि वे भगवान् की पूजा के लिए किसी देवता की पूजा कर सकते हैं। विशेष रूप से, हिन्दुओं में से, जो लोग मांसाहारी हैं, वे काली की पूजा को वरीयता प्रदान करते हैं, क्योंकि देवी के समक्ष एक बकरे की बलि का विधान है। उनका कहना है कि कोई चाहे देवी काली की पूजा करे या भगवान् विष्णु अथवा किसी देवता की, लक्ष्य एक-सा होता है। यह प्रथम कोटि का पाखण्ड है और ऐसे लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं। किन्तु फिर भी उन्हें यही दर्शन पसन्द है। भगवद्गीता ऐसे पाखण्ड को स्वीकार नहीं करती। उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि ऐसी विधियाँ बुद्धिभ्रष्ट लोगों के लिए हैं। यहाँ इसी न्याय की पुष्टि की गई है और इसीलिए काममूढ शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है, जिसने अपनी इन्द्रियाँ खो दी हैं या जो इन्द्रियतुष्टि के लिए कामवासना से अन्धा हो चुका है। काममूढ़ लोग कृष्णभावनामृत तथा भक्ति से विहीन होते हैं और इन्द्रियतृप्ति की प्रबल इच्छा से अन्धे बने रहते हैं। देवताओं के पूजने की भर्त्सना भगवद्गीता तथा भागवत दोनों में की गई है।
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