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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.32.21 
ततस्ते क्षीणसुकृता: पुनर्लोकमिमं सति ।
पतन्ति विवशा देवै: सद्यो विभ्रंशितोदया: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—तब; ते—वे; क्षीण—चुक जाने पर; सु-कृता:—पुण्य कर्मों के फल; पुन:—फिर; लोकम् इमम्—इस लोक में; सति—हे सती माता; पतन्ति—गिरते हैं; विवशा:—असहाय; देवै:—दैववश; सद्य:—अचानक; विभ्रंशित— गिराये जाकर; उदया:—उनकी सम्पन्नता ।.
 
अनुवाद
 
 जब उनके पुण्यकर्मों का फल चुक जाता है, तो वे दैववश नीचे गिरते हैं और पुन: इस लोक में आ जाते हैं जिस प्रकार किसी व्यक्ति को ऊँचे उठाकर सहसा नीचे गिरा दिया जाये।
 
तात्पर्य
 कभी-कभी देखा जाता है कि सरकारी नौकरी में उच्च पद आसीन व्यक्ति अचानक ही नीचे आ जाता है, उसे कोई बचा नहीं पाता। इसी प्रकार सुखोपभोग का समय बीत जाने पर, मूर्ख व्यक्ति जो उच्चलोकों में अध्यक्ष पद तक उठने के इच्छुक रहते हैं, नीचे गिरकर इस लोक में आते हैं। एक भक्त तथा सकाम कर्म में आसक्त एक सामान्य व्यक्ति के उच्च पद में यह अन्तर होता है कि वैकुण्ठ गया हुआ भक्त कभी नीचे नहीं गिरता जबकि सामान्य व्यक्ति गिरता है, भले ही वह उच्चतम लोक, ब्रह्मलोक, को ही क्यों न प्राप्त हो। भगवद्गीता में पुष्टि हुई है (आब्रह्म भुवनाल्लोका:) कि चाहे वह उच्चलोक को ही प्राप्त क्यों न हो उसे पुन: नीचे आना होता है। किन्तु भगवद्गीता (८.१६) में ही कृष्ण द्वारा पुष्टि की गई है कि मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते—हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त करता है, वह कभी इस संसार के बद्ध जीवन में वापस नहीं आता।
 
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