श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.32.22 
तस्मात्त्वं सर्वभावेन भजस्व परमेष्ठिनम् ।
तद्गुणाश्रयया भक्त्या भजनीयपदाम्बुजम् ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मात्—अत:; त्वम्—तुम (देवहूति); सर्व-भावेन—प्रेमानुभूति में; भजस्व—पूजा करो; परमेष्ठिनम्—भगवान् को; तत्-गुण—भगवान् के गुण; आश्रयया—से सम्बन्धित; भक्त्या—भक्ति से; भजनीय—पूज्य; पद-अम्बुजम्—जिनके चरणकमल ।.
 
अनुवाद
 
 अत: हे माता, मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप भगवान् की शरण ग्रहण करें जिनके चरणकमल पूजनीय हैं। इसे आप समस्त भक्ति तथा प्रेम से स्वीकार करें, क्योंकि इस तरह से आप दिव्य भक्ति को प्राप्त हो सकेंगी।
 
तात्पर्य
 परमेष्ठिनम् शब्द का प्रयोग कभी-कभी ब्रह्मा के लिए किया जाता है। परमेष्ठी का अर्थ है ‘परम पुरुष’। जिस तरह इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा ही परम पुरुष हैं उसी तरह वैकुण्ठ में कृष्ण परम पुरुष हैं। भगवान् कपिल देव अपनी माता को सलाह देते हैं कि वे भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की शरण में जाएँ, क्योंकि यही श्रेयकर है। यहाँ ब्रह्मा तथा शिव जैसे उच्चतम पदों में आसीन देवताओं की शरण ग्रहण करने की सलाह नहीं दी गई। मनुष्य को भगवान् की शरण ग्रहण करनी चाहिए।

सर्वभावेन का तात्पर्य है “सर्व प्रेमानुभूति में।” ईश्वर का शुद्ध प्रेम प्राप्त करने के पूर्व ऊपर उठने की प्रारम्भिक अवस्था भाव है। भगवद्गीता का वचन है—बुधा भावसमन्विता:— जिसने भाव अवस्था प्राप्त कर ली है, वह भगवान् कृष्ण के चरणकमलों को पूजनीय स्वीकार कर सकता है। यहाँ पर भगवान् कपिल ने अपनी माता को यही उपदेश दिया है। इस श्लोक में तद्-गुणाश्रयया भक्त्या पद भी महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ यह है कि कृष्ण की भक्ति सम्पन्न करना दिव्य कर्म है, यह कोई भौतिक कर्म नहीं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है—

ब्रह्मभूयाय कल्पते—जो भक्ति में लगे हुए हैं, वे तुरन्त दिव्य धाम को प्राप्त होते हैं। मनुष्य के लिए जीवन की चरम सिद्धि प्राप्त करने के लिए एकमात्र साधन पूर्ण कृष्णचेतना में भक्ति करना है। भगवान् कपिल ने यहाँ पर अपनी माता को इसी का उपदेश दिया है। अत: भक्ति समस्त गुणों के प्रभावों से मुक्त है अर्थात् ‘निर्गुण’ है। यद्यपि भक्ति सम्पन्न करना भौतिक कार्य-सा प्रतीत होता है, किन्तु यह कभी ‘सगुण’ नहीं है अर्थात् भौतिक गुणों से दूषित नहीं होता। तद्गुणाश्रया का अर्थ है कि भगवान् कृष्ण के दिव्य गुण इतने महान् हैं कि मनुष्य को अन्य कार्यों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रह जाती। भक्तों के प्रति उनका व्यवहार इतना प्रशंसनीय होता है कि उन्हें किसी दूसरी पूजा की ओर मन को मोडऩा नहीं पड़ता। कहा जाता है कि पूतना नामक राक्षसी कृष्ण को विष देकर मारने आई थी, किन्तु कृष्ण इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसका स्तन-पान करके अपनी माता के समान पद प्रदान कर दिया। अत: भक्तगण प्रार्थना करते हैं कि जब कृष्ण को मारने की इच्छा से आयी हुई पूतना इतना उच्च पद प्राप्त कर सकती है, तो फिर कृष्ण को छोडक़र अन्य किसी की पूजा से क्या लाभ? धार्मिक कार्य दो प्रकार के होते हैं—एक तो भौतिक विकास के लिए और दूसरे आध्यात्मिक विकास के लिए। कृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने से—भौतिक तथा आध्यात्मिक—दोनों प्रकार की सम्पन्नता प्राप्त हो जाती है। तो फिर कोई अन्य देवताओं के पास क्यों जाएँ?

 
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