यदास्य चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभि: ।
न विगृह्णाति वैषम्यं प्रियमप्रियमित्युत ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
यदा—जब; अस्य—भक्त का; चित्तम्—मन; अर्थेषु—विषयों में; समेषु—सम; इन्द्रिय-वृत्तिभि:—इन्द्रियों की क्रियाओं से; न—नहीं; विगृह्णाति—देखता है; वैषम्यम्—अन्तर; प्रियम्—स्वीकार्य; अप्रियम्—अस्वीकार्य; इति— इस प्रकार; उत—निश्चय ही ।.
अनुवाद
उच्च भक्त का मन इन्द्रिय-वृत्तियों में समदर्शी हो जाता है और वह प्रिय तथा अप्रिय से परे हो जाता है।
तात्पर्य
दिव्य ज्ञान तथा भौतिक आकर्षण से वैराग्य में होने वाली उन्नति की महत्ता अत्यन्त सिद्ध भक्त के व्यक्तित्व में प्रकट होती है। उसके लिए न कुछ स्वीकार्य होती है न अस्वीकार्य, क्योंकि वह अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी नहीं करता। वह जो कुछ करता है, जो कुछ सोचता है, वह सब भगवान् को प्रसन्न करने के लिए होता है। चाहे भौतिक जगत हो या आध्यात्मिक जगत, उसका समदर्शी चित्त पूर्णत: प्रकट हो जाता है। वह समझ सकता है कि इस संसार में कुछ भी अच्छा नहीं है, प्रकृति द्वारा दूषित होने से सब कुछ बुरा है। अच्छा तथा बुरा, नैतिक तथा अनैतिक के विषय में भौतिकतवादी के निष्कर्ष केवल मनोकल्पना या भावुकता होते हैं। वास्तव में इस संसार में कुछ भी अच्छा नहीं है। आध्यात्मिक जगत में सब कुछ अच्छा है। आध्यात्मिक गुणों में उन्माद नहीं रहता। चूँकि भक्त हर वस्तु को आध्यात्मिक दृष्टि से देखता है, अत: वह समदर्शी होता है। दिव्य पद तक उठने का यही लक्षण है। वह स्वत: वैराग्य, फिर ज्ञान और तब दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि उच्च भक्त अपने को भगवान् के दिव्य गुणों से जोड़ लेता है और इस तरह गुणात्मक रूप से वह भगवान् से एकरूप हो जाता है।
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