श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.32.26 
ज्ञानमात्रं परं ब्रह्म परमात्मेश्वर: पुमान् ।
द‍ृश्यादिभि: पृथग्भावैर्भगवानेक ईयते ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
ज्ञान—ज्ञान; मात्रम्—केवल; परम्—दिव्य; ब्रह्म—ब्रह्म; परम-आत्मा—परमात्मा; ईश्वर:—ईश्वर, नियामक; पुमान्—परमात्मा; दृशि-आदिभि:—दार्शनिक खोज तथा अन्य विधियों से; पृथक् भावै:—ज्ञान की विविध विधियों के अनुसार; भगवान्—श्रीभगवान्; एक:—अकेला; ईयते—अनुभव किया जाता है ।.
 
अनुवाद
 
 केवल भगवान् ही पूर्ण दिव्य ज्ञान हैं, किन्तु समझने की भिन्न-भिन्न विधियों के अनुसार वे या तो निर्गुण ब्रह्म, परमात्मा, भगवान् या पुरुष अवतार के रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ दृश्य-आदिभि: शब्द महत्त्वपूर्ण है। जीव गोस्वामी के अनुसार दृशि का अर्थ ज्ञान या दार्शनिक खोज है। विभिन्न विचारधाराओं के अन्तर्गत दार्शनिक अनुसंधान की अनेकानेक विधियों द्वारायथा ज्ञानयोग विधि से वही भगवान् अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् निराकार ब्रह्म समझा जाता है। इसी प्रकार अष्टांग योग पद्धति से वही भगवान् परमात्मा प्रतीत होता है। किन्तु विशुद्ध कृष्णचेतना अथवा ज्ञान की विशुद्ध स्थिति में, जब कोई परम सत्य को जानने का प्रयास करता है, तो वही भगवान् उसे परम पुरुष प्रतीत होता है। केवल ज्ञान के आधार पर अध्यात्म समझा जाता है। यहाँ पर प्रयुक्त परमात्मेश्वर: पुमान्—ये सभी शब्द दिव्य हैं और वे परमात्मा को ही बताने वाले हैं। परमात्मा को पुरुष भी कहा जाता है, किन्तु भगवान्् शब्द से सीधे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का बोध होता है, जो श्री, यश, शक्ति, सौन्दर्य, ज्ञान तथा वैराग्य नामक षडैश्वर्यों से पूर्ण हैं। वे ही विभिन्न परव्योमों (वैकुण्ठों) में परमेश्वर हैं। परमात्मा, ईश्वर और पुमान् के विविध वर्णन यह बताते हैं कि परमेश्वर के अनन्त विस्तार हैं।

अन्तत: भगवान् को जानने के लिए मनुष्य को भक्तियोग अपनाना होता है। ज्ञानयोग या ध्यानयोग सम्पन्न करके अन्तत: भक्तियोग पद तक पहुँचना होता है और तभी परमात्मा, ईश्वर, पुमान् आदि को ठीक से समझा जा सकता है। श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध में संस्तुति की गई है कि मनुष्य चाहे भक्त हो या कर्मयोगी या मुक्ति का इच्छुक, यदि वह बुद्धिमान है, तो उसे गम्भीरतापूर्वक भक्ति में लग जाना चाहिए। यह भी बताया गया है कि सकाम कर्मों से जो भी इच्छित फल प्राप्त होता है चाहे वह उच्चलोक जाने की इच्छा ही क्यों न हो, वह सब केवल भक्ति करने से प्राप्त हो जाता है। चूँकि परमेश्वर छह ऐश्वर्यों से युक्त हैं, अत: वे अपने उपासक को इनमें से किसी का भी वर दे सकते हैं।

एक ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भिन्न-भिन्न चिन्तकों के समक्ष ‘परम पुरुष’, ‘निराकार ब्रह्म’ या ‘परमात्मा’ के रूप में प्रकट होते हैं। निर्विशेषवादी निराकार ब्रह्म में लीन होते हैं, किन्तु निराकार ब्रह्म की उपासना से ऐसा नहीं होता। यदि कोई भक्ति करे और साथ ही परमेश्वर में लीन होना चाहे तो ऐसा कर सकता है। यदि कोई ब्रह्म में लीन होना चाहता है, तो उसे भक्ति करनी होगी।

भक्त तो परमेश्वर को साक्षात् देख सकता है, किन्तु ‘ज्ञानी’ तथा ‘योगी’ ऐसा नहीं कर पाते। वे भगवान् के पार्षद पद तक नहीं उठ पाते। शास्त्रों में ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है जहाँ ज्ञान के अनुशीलन या निराकार ब्रह्म की उपासना से कोई भगवान् का निजी पार्षद बना हो। न ही योग के सिद्धान्तों से कोई भगवान् का पार्षद बन सकता है। निराकार ब्रह्म को अदृश्य कहा जाता है, क्योंकि ब्रह्मज्योति का निराकार तेज भगवान् के मुख को आच्छादित किये रहता है। कुछ योगी चतुर्भुज विष्णु को हृदय में आसीन देखते हैं, किन्तु यहाँ भी भगवान् अदृश्य रहते हैं। भगवान् केवल भक्तों को दृश्य हैं। यहाँ पर दृश्य-आदिभि: कथन महत्त्वपूर्ण है। चूँकि भगवान् दृश्य तथा अदृश्य दोनों हैं, अत: उनके भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। विष्णु पुराण में इस तथ्य की सुन्दर व्याख्या हुई है। भगवान् का विराट रूप तथा भगवान् का निराकार ब्रह्मतेज, अदृश्य होने के कारण निम्नतर रूप हैं। विराट रूप की कल्पना भौतिक है और निराकार ब्रह्म की कल्पना आध्यात्मिक है, किन्तु सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभूति तो पुरुषोत्तम भगवान् हैं। विष्णु पुराण का कथन है—विष्णुर्ब्रह्मस्वरूपेण स्वयमेव व्यवस्थित:—ब्रह्म का असली रूप विष्णु है अथवा विष्णु ही परब्रह्म हैं। स्वयम् एव उनका सगुण रूप है। परम आध्यात्मिक अवधारणा तो भगवान् है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है—यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। परमं मम कहलाने वाला धाम ही वह स्थान है, जिसे यदि कोई एक बार प्राप्त कर ले तो वहाँ से इस कष्टप्रद बद्धजीवन में फिर नहीं लौटता। हर स्थान, हर आकाश तथा हर वस्तु विष्णु की है, किन्तु जिस स्थान में वे स्वयं रहते हैं वह तद्धाम परमम्—उनका परम धाम है। मनुष्य को अपना गन्तव्य भगवान् का परम धाम बनाना चाहिए।

 
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