समस्त योगियों के लिए सबसे बड़ी सूझबूझ तो पदार्थ से पूर्ण विरक्ति है, जिसे योग के विभिन्न प्रकारों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
तात्पर्य
योग तीन प्रकार के हैं—भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा अष्टांगयोग। भक्त, ज्ञानी तथा योगी सभी भवबन्धन से बाहर निकलने का प्रयास करते हैं। ज्ञानी अपनी इन्द्रिय वृत्तियों को भौतिक कार्यों से पृथक् करने का प्रयास करते हैं। ज्ञानयोगी सोचता है कि पदार्थ असत्य है, केवल ब्रह्म सत्य है, अत: ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह इन्द्रियों को भौतिक भोग से हटाने का यत्न करता है। अष्टांगयोगी भी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु भक्तजन अपनी इन्द्रियों को भगवन् की सेवा में लगाते हैं। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि भक्तों के कार्य ज्ञानियों तथा योगियों से श्रेष्ठ हैं। योगीजन योग के आठ अंगों—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार इत्यादि के अभ्यास द्वारा इन्द्रियों को वश में करने का प्रयास करते हैं और ज्ञानीजन अपने मानसिक तर्क द्वारा यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि इन्द्रिय सुख असत्य है। किन्तु सबसे सरल तथा अत्यन्त प्रत्यक्ष विधि तो इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना है।
समस्त योगों का उद्देश्य इस संसार से इन्द्रियवृत्तियों को मोडऩा है। किन्तु अन्तिम लक्ष्य पृथक्-पृथक् हैं। ज्ञानी ब्रह्मतेज से एकाकार हो जाना चाहते हैं, योगी परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहते हैं और भक्त कष्णचेतना तथा भगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति उत्पन्न करना चाहते हैं। प्रेमा-भक्ति ही इन्द्रिय-निग्रह की पूर्ण अवस्था है। इन्द्रियाँ वास्तव में जीवन के सक्रिय लक्षण हैं। इन्हें रोका नहीं जा सकता। इन्हें तभी विलग किया जा सकता है जब कोई श्रेष्ठ व्यवस्था हो। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि की गई है—परं दृष्ट्वा निवर्तते—इन्द्रियों के कार्यों को रोका जा सकता है यदि इन्हें श्रेष्ठ कार्य दे दिये जाँय। यह श्रेष्ठ कार्य है इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना। यही सारे योग का उद्देश्य है।
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