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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  3.32.28 
ज्ञानमेकं पराचीनैरिन्द्रियैर्ब्रह्म निर्गुणम् ।
अवभात्यर्थरूपेण भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणा ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
ज्ञानम्—ज्ञान; एकम्—एक; पराचीनै:—पराङ्गमुख; इन्द्रियै:—इन्द्रियों के द्वारा; ब्रह्म—परम सत्य; निर्गुणम्—गुणों से परे; अवभाति—प्रकट होता है; अर्थ-रूपेण—विभिन्न विषयों के रूप में; भ्रान्त्या—भूल से; शब्द-आदि—शब्द इत्यादि; धर्मिणा—से युक्त ।.
 
अनुवाद
 
 जो अध्यात्म से पराङ्मुख हैं, वे परम सत्य (परमेश्वर) को कल्पित इन्द्रिय-प्रतीति द्वारा अनुभव करते हैं, अत: भ्रान्तिवश उन्हें प्रत्येक वस्तु सापेक्ष प्रतीत होती है।
 
तात्पर्य
 परम सत्य भगवान् एक हैं, किन्तु अपने निराकार स्वरूप के कारण सर्वत्र व्याप्त हैं। इसका स्पष्ट उल्लेख भगवद्गीता में है। भगवान् कहते हैं, “जो कुछ भी अनुभव किया जाता है, वह मेरी शक्ति का ही विस्तार है।” हर वस्तु उन्हीं पर आश्रित है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे हर वस्तु हैं। इन्द्रिय प्रतीतियाँ यथा ढोल की आवाज की श्रुति प्रतीति, सुन्दर स्त्री की दृश्य प्रतीति या जीभ द्वारा दूध की बनी सुस्वादु वस्तुओं की स्वाद-प्रतीति—ये सब भिन्न-भिन्न इन्द्रियों से प्राप्त होती हैं, फलत: भिन्न-भिन्न प्रकार से समझी जाती हैं। इसीलिए ऐन्द्रिय ज्ञान कई श्रेणियों में विभाजित है, यद्यपि सभी वस्तुएँ परमेश्वर की शक्ति के रूप में एक ही हैं। इसी प्रकार अग्नि की शक्तियाँ उष्मा तथा प्रकाश हैं और इन दोनों शक्तियों के द्वारा अग्नि कई रूपों में प्रकट हो सकती है। मायावादी चिन्तक इस विविधता को असत्य घोषित करते हैं, किन्तु वैष्णव चिन्तक ऐसा नहीं मानते। वे इन्हें भगवान् से अभिन्न मानते हैं, क्योंकि इनसे भगवान् की विविध शक्तियों का प्रदर्शन होता है।

वैष्णव दार्शनिक इस दर्शन को स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है और यह सृष्टि असत्य (झूठी) है (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या)। यद्यपि यह उदाहरण दिया जाता है कि सारी चमकने वाली वस्तुएँ सोना नहीं होतीं, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं होता कि चमकने वाली वस्तुएँ असत्य हैं। उदाहरणार्थ, सीपी सुनहली प्रतीत होती है। इसका सुनहला रंग आँखों की प्रतीति के कारण है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सीपी असत्य है। इसी प्रकार भगवान् कृष्ण के स्वरूप को देखकर कोई यह नहीं जान सकता कि वास्तव में वे क्या हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे असत्य हैं। कृष्ण के स्वरूप को ज्ञानग्रन्थों यथा ब्रह्म-संहिता में वर्णित स्वरूप के आधार पर जाना जाता है। ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:—भगवान् कृष्ण का आध्यात्मिक शरीर शाश्वत एवं आनन्दमय है। अपनी अपूर्ण अनुभूति के कारण हम भगवान् के रूप को समझ नहीं पाते। हमें उनके विषय में ज्ञान प्राप्त करना होता है। इसीलिए यहाँ पर ज्ञानम् एकम् कहा गया है। भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती है कि जो लोग कृष्ण को देखकर उन्हें सामान्य व्यक्ति समझते हैं, वे मूर्ख हैं। वे भगवान् के असीम ज्ञान, शक्ति तथा ऐश्वर्य को नहीं जानते। भौतिक इन्द्रिय-कल्पना से निष्कर्ष निकलता है कि परमेश्वर स्वरूपहीन (निराकार) हैं। ऐसी ही कल्पना के कारण बद्धजीव माया के वशीभूत होकर अज्ञान में रहा आता है। परम पुरुष को भगवद्गीता में उन्हीं के द्वारा उच्चरित वाणी से समझा जा सकता है जहाँ वे स्वयं कहते हैं कि मुझसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है और निराकार ब्रह्मतेज मुझमें ही वास करता है। भगवद्गीता की शुद्ध एवं पूर्ण दृष्टि की तुलना गंगा नदी से की जाती है। गंगाजल इतना शुद्ध है कि उससे गधे तथा गौवें भी शुद्ध हो जाती हैं। किन्तु यदि गंगा की उपेक्षा करके कोई गंदे नाले के जल से शुद्ध होना चाहे तो वह सफल नहीं होगा। इसी प्रकार केवल शुद्ध परमेश्वर के मुख से ही सुनकर शुद्ध ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि जो भगवान् से विमुख हैं, वे अपनी अपूर्ण इन्द्रियों से परम सत्य की प्रकृति के विषय में चिन्तन करते हैं। निराकार ब्रह्म का ज्ञान केवल कानों से ग्रहण किया जा सकता है, साक्षात् अनुभव से नहीं, फलत: ज्ञान श्रोत्र अनुभव से (सुनकर) प्राप्त किया जाता है। वेदान्त-सूत्र में पुष्टि हुई—शास्त्र योनित्वात्—केवल प्रामाणिक शास्त्रों से शुद्ध ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। परम सत्य के विषय में तथाकथित काल्पनिक तर्क व्यर्थ हैं। जीव की वास्तविक पहचान उसकी चेतना है, जो उसके जगते, सोते तथा सपने में भी सदा विद्यमान रहती है। यहाँ तक कि प्रगाढ़ निद्रा में भी वह अपनी चेतना से अपने को सुखी या दुखी देखता है। इस प्रकार जब सूक्ष्म तथा स्थूल भौतिक पदार्थों के माध्यम से चेतना प्रकट होती है, तो वह प्रच्छन्न रहती है, किन्तु जब चेतना कृष्णचेतना में रहकर शुद्ध हो जाती है, तो मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।

जब शुद्ध ज्ञान प्रकृति के गुणों से अनावृत होता है तभी जीव की वास्तविक पहचान हो पाती है कि वह भगवान् का शाश्वत दास है। यह अनावरण इस प्रकार से होता है : सूर्य की किरणें प्रकाशमान होती हैं और सूर्य स्वयं भी प्रकाशमान है, किन्तु जब सूर्य का प्रकाश बादल से या माया से आच्छादित हो जाता है, तो अंधकार या अधूरा ज्ञान प्रारम्भ होता है। अत: अज्ञान के अंधकार से निकलने के लिए अपनी आध्यात्मिक चेतना या कृष्णचेतना को शास्त्रानुमोदित विधि से जगाना होता है।

 
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