श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  3.32.29 
यथा महानहंरूपस्त्रिवृत्पञ्चविध: स्वराट् ।
एकादशविधस्तस्य वपुरण्डं जगद्यत: ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; महान्—महत्-तत्त्व; अहम्-रूप:—मिथ्या, अहंकार; त्रि-वृत्—प्रकृति के तीन गुण; पञ्च- विध:—पाँच भौतिक तत्त्व; स्व-राट्—व्यष्टि चेतना; एकादश-विध:—ग्यारह इन्द्रियाँ; तस्य—जीव की; वपु:— शरीर; अण्डम्—ब्रह्माण्ड; जगत्—विश्व; यत:—जिससे ।.
 
अनुवाद
 
 मैंने महत् तत्त्व या समग्र शक्ति से अहंकार, तीनों गुण, पाँचों तत्त्व, व्यष्टि चेतना, ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शरीर उत्पन्न किये हैं। इसी प्रकार मुझ भगवान् से ही सारा ब्रह्माण्ड प्रकट हुआ।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर को महत्-पद के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है कि समग्र भौतिक शक्ति, जिसे महत्-तत्त्व कहते हैं, उनके चरणकमलों पड़ी लेटी है। दृश्यजगत की उत्पत्ति या समग्र शक्ति महत्-तत्त्व है। महत्-तत्त्व से ही अन्य चौबीस विभाग हुए जो इस प्रकार हैं—ग्यारह इन्द्रियाँ (मन समेत), पाँच विषय, पाँच तत्त्व, चेतना, बुद्धि तथा अहंकार। चूँकि भगवान् ही महत्-तत्त्व के कारणस्वरूप हैं, अत: एक प्रकार से प्रत्येक वस्तु परमेश्वर से उद्भूत है, अत: भगवान् एवं दृश्य जगत में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु उसी के साथ ही दृश्य जगत भगवान् से भिन्न है। यहाँ पर स्वराट् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है ‘स्वतन्त्र’। परमेश्वर स्वतन्त्र हैं और जीवात्मा भी स्वतन्त्र है। फिर भी इन दोनों प्रकार की स्वतन्त्रता में कोई साम्य नहीं है, क्योंकि जीव कुछ-कुछ स्वतन्त्र है और भगवान् पूर्णरूपेण स्वतन्त्र हैं। जिस प्रकार प्रत्येक जीव के भौतिक शरीर होता है, जो पाँच तत्त्वों तथा इन्द्रियों से निर्मित है, उसी तरह यह ब्रह्माण्ड परम स्वतन्त्र भगवान् का विराट शरीर है। शरीर नाशवान है उसी तरह परमेश्वर का शरीर रूपी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी नाशवान है और ये दोनों प्रकार के शरीर महत्-तत्त्व से ही बने हैं। अत: बुद्धि से इस अन्तर को समझना चाहिए। हर व्यक्ति जानता है कि उसका शरीर एक दिव्य स्फुलिंग से उत्पन्न हुआ है, इसी प्रकार विराट शरीर परामात्मा या परम स्फुलिंग से उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार प्रत्येक शरीर आत्मा से उत्पन्न है उसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड रूपी विराट शरीर परमात्मा से उत्पन्न है। जिस प्रकार प्रत्येक आत्मा चेतना से युक्त है उसी तरह परमात्मा भी है। इस प्रकार परमात्मा तथा आत्मा में साम्य होने पर भी आत्मा की चेतना सीमित है और परमात्मा की असीम है। इसका वर्णन भगवद्गीता (१३.३) में इस प्रकार हुआ है—क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि—परमात्मा प्रत्येक कर्मक्षेत्र में उपस्थित रहता है, जिस प्रकार कि प्रत्येक शरीर में आत्मा रहता है। दोनों ही चेतन हैं। अन्तर इतना ही है कि व्यष्टि आत्मा केवल व्यष्टि शरीर के प्रति चेतन है, जबकि परमात्मा समस्त शरीरों के प्रति है।
 
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