यथा—जिस प्रकार; इन्द्रियै:—इन्द्रियों से; पृथक्-द्वारै:—विभिन्न प्रकार से; अर्थ:—वस्तु; बहु-गुण—अनेक गुणों; आश्रय:—से युक्त; एक:—एक; नाना—भिन्न-भिन्न प्रकार से; ईयते—अनुभव किया जाता है; तद्वत्—उसी प्रकार; भगवान्—भगवान्; शास्त्र-वर्त्मभि:—विभिन्न शास्त्रीय आदेशों के अनुसार ।.
अनुवाद
एक ही वस्तु अपने विभिन्न गुणों के कारण भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से ग्रहण की जाती है। इसी तरह भगवान् एक है, किन्तु विभिन्न शास्त्रीय आदेशों के अनुसार वह भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है।
तात्पर्य
ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानयोग के मार्ग पर चलकर मनुष्य निराकार ब्रह्म तक पहुँचता है, किन्तु कृष्ण-चेतना में भक्ति करने से उसकी भगवान् में श्रद्धा तथा भक्ति बढ़ती है। किन्तु यहाँ यह कहा गया है कि भक्तियोग तथा ज्ञानयोग दोनों एक ही लक्ष्य—भगवान्—तक पहुँचने के लिए हैं। ज्ञानयोग की विधि से वही भगवान् निराकार प्रतीत होता है। जिस तरह एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न लगती है उसी तरह एक ही परमेश्वर चिन्तन द्वारा निराकार प्रतीत होता है। एक पहाड़ी दूर से बादल जैसी लगती है और इस के कारण अनजान व्यक्ति इसे बादल मान सकता है, किन्तु वास्तव में यह बादल नहीं है, यह एक बड़ी सी पहाड़ी है। मनुष्य को प्रमाण से सिखना होता है कि बादल का दृश्य बादल न होकर पहाड़ी है। यदि कोई थोड़ा-थोड़ा करके आगे बढ़े तो बादल के बदले उसे पहाड़ी तथा हरियाली दिखने लगती है। जब कोई सचमुच ही पहाड़ी पर पहुँच जाता है, तो उसे तरह-तरह की वस्तुएँ दिख सकती हैं। दूसरा उदाहरण दूध का है। जब हम दूध को देखते हैं, तो यह सफेद लगता है, जब उसे चखते हैं, तो स्वादिष्ट लगता है। छूने पर ठंडा लगता है, सूँघने पर सुगन्धित लगता है और सुन कर इसे दूध समझा जाता है। विभिन्न इन्द्रियों द्वारा दूध का अनुभव करने पर हम कहते हैं कि यह एक सफेद, स्वादिष्ट, सुगन्धित वस्तु है। वास्तव में यह दूध है। इसी प्रकार जो लोग चिन्तन द्वारा भगवान् को खोजना चाहते हैं, वे उनके शारीरिक तेज या निराकार ब्रह्म तक पहुँच सकते हैं और जो भगवान् को योगाभ्यास द्वारा पाना चाहते हैं, वे उन्हें अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु जो लोग भक्तियोग द्वारा भगवान् के पास पहुँचना चाहते हैं, वे साक्षात् परम पुरुष का दर्शन कर सकते हैं।
अन्तत: परम पुरुष ही सारी विधियों का गन्तव्य है। जो भाग्यशाली पुरुष शास्त्रों के नियमों का पालन करते हुए समस्त भौतिक कल्मषों से पूर्णतया शुद्ध हो जाता है, वह परमेश्वर को सब कुछ मान कर उनकी शरण में चला जाता है। जिस प्रकार दूध का वास्तविक स्वाद आँख, नथुनों या कानों से न लेकर जीभ से लिया जाता है उसी तरह मनुष्य परम सत्य का आनन्द केवल एक ही मार्ग—भक्ति—द्वारा प्राप्त कर सकता है। भगवद्गीता में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है—भक्त्या मामभिजानाति—यदि कोई परम सत्य को पूरी तरह जानना चाहता है, तो उसे भक्ति करनी चाहिए। निस्सन्देह परम सत्य को कोई पूरी तरह समझ नहीं सकता। एक लघु जीव के लिए यह सम्भव नहीं है। किन्तु भक्ति सम्पन्न करके जीवात्मा ज्ञान के चरम-विन्दु तक पहुँच सकता है, अन्य विधि से नहीं।
विभिन्न शास्त्रीय मार्गों का अनुसरण करके मनुष्य भगवान् के निराकार तेज तक पहुँच सकता है। भगवान् के साथ तादात्म्य या निराकार ब्रह्म के ज्ञान से दिव्य आनन्द मिलता है, क्योंकि ब्रह्म अनन्त है। तद् ब्रह्म निष्कलं अनन्तम्—ब्रह्मानन्द अनन्त है। किन्तु इस अनन्त आनन्द के भी परे जाया जा सकता है। यह गुणातीत है। अनन्त को भी लाँघने पर जो उच्च पद प्राप्त होता है, वह कृष्ण है। श्रीकृष्ण की भक्ति से आदान-प्रदान द्वारा जो मधु एवं रस प्राप्त होता है, वह अतुलनीय है और वह ब्रह्मानन्द से भी बढक़र है। अत: प्रबोधानन्द स्वामी कहते हैं कि ‘कैवल्य’ या ब्रह्मानन्द निस्सन्देह अत्यन्त महान् है और अनेक ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है, किन्तु यह ब्रह्मानन्द उस भक्त के लिए नरक तुल्य है, जिसने भगवान् की भक्ति से सुख प्राप्त करना सीख लिया है। अत: कृष्ण से साक्षात्कार करने के लिए मनुष्य को ब्रह्मानन्द को भी पार करना सीखना होता है। चूँकि मन समस्त इन्द्रियों की वृत्तियों का केन्द्र है इसलिए कृष्ण को इन्द्रियों का स्वामी या ‘हृषीकेश’ कहा जाता है। इसकी विधि है मन को कृष्ण या हृषीकेश पर स्थिर करना, जैसाकि महाराज अम्बरीष ने किया (स वै मन: कृष्णपदारविन्दयो:)। भक्ति समस्त विधियों का मूल सिद्धान्त है। भक्ति के बिना न तो ज्ञानयोग और न अष्टांग-योग सफल हो सकता है और कृष्ण तक पहुँचे बिना आत्म-साक्षात्कार के सिद्धान्तों का कोई चरम लक्ष्य नहीं होता।
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