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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 34-36
 
 
श्लोक  3.32.34-36 
क्रियया क्रतुभिर्दानैस्तप:स्वाध्यायमर्शनै: ।
आत्मेन्द्रियजयेनापि संन्यासेन च कर्मणाम् ॥ ३४ ॥
योगेन विविधाङ्गेन भक्तियोगेन चैव हि ।
धर्मेणोभयचिह्नेन य: प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥ ३५ ॥
आत्मतत्त्वावबोधेन वैराग्येण द‍ृढेन च ।
ईयते भगवानेभि: सगुणो निर्गुण: स्वद‍ृक् ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
क्रियया—सकाम कर्म से; क्रतुभि:—यज्ञ से; दानै:—दान से; तप:—तपस्या; स्वाध्याय—वैदिक साहित्य का अध्ययन; मर्शनै:—तथा ज्ञानयोग के द्वारा; आत्म-इन्द्रिय-जयेन—मन तथा इन्द्रियों को वश में करने से; अपि—भी; सन्न्यासेन—संन्यास के द्वारा; —तथा; कर्मणाम्—सकाम कर्मों का; योगेन—योग से; विविध-अङ्गेन—विविध विभागों वाले; भक्ति-योगेन—भक्ति से; —तथा; एव—निश्चय ही; हि—निस्सन्देह; धर्मेण—नियत कार्यों से; उभय-चिह्नेन—दोनों लक्षणों वाले; य:—जो; प्रवृत्ति—आसक्ति; निवृत्ति-मान्—वैराग्य से युक्त; आत्म-तत्त्व— आत्म-साक्षात्कार का विज्ञान; अवबोधेन—ज्ञान से; वैराग्येण—वैराग्य से; दृढेन—दृढ़; —तथा; ईयते—अनुभव किया जाता है; भगवान्—भगवान्; एभि:—इनसे; स-गुण:—भौतिक संसार में; निर्गुण:—गुणों से परे; स्व-दृक्— अपनी वैधानिक स्थिति को देखने वाला ।.
 
अनुवाद
 
 सकाम कर्म तथा यज्ञ सम्पन्न करके, दान देकर, तपस्या करके, विविध शास्त्राों के अध्ययन से, ज्ञानयोग से, मन के निग्रह से, इन्द्रियों के दमन से, संन्यास ग्रहण करके तथा अपने आश्रम के कर्तव्यों का निर्वाह करके, योग की विभिन्न विधियों को सम्पन्न करके, भक्ति करके तथा आसक्ति और विरक्ति के लक्षणों से युक्त भक्तियोग को प्रकट करके, आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को जान करके तथा प्रबल वैराग्य भाव जागृत करके आत्म-साक्षात्कार की विभिन्न विधियों को समझने में अत्यन्त पटु व्यक्ति उस रूप में भगवान् का साक्षात्कार करता है जैसा कि वे भौतिक जगत में तथा अध्यात्म में निरूपित किये जाते हैं।
 
तात्पर्य
 जैसाकि पिछले श्लोक में बताया गया है, शास्त्रों के नियमों का पालन करना होता है। विभिन्न वर्णाश्रमों में व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न कार्य बताये गये हैं। यहाँ बताया गया है कि सकाम कर्म तथा यज्ञ करना और दान देना—ये गृहस्थाश्रम के कर्म हैं। आश्रम चार हैं—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। गृहस्थों के लिए यज्ञ करने, दान देने तथा नियत कर्मों के अनुसार कर्म करने की संस्तुति की गई है। इसी प्रकार तपस्या, वेदाध्ययन तथा ज्ञान की खोज—ये वानप्रस्थों के लिए हैं। ब्रह्मचारी या छात्र के लिए प्रामाणिक गुरु से वेदों का अध्ययन करना करणीय बताया गया है। जो संन्यासी हैं उनके लिए आत्मेन्द्रिय-जय—अर्थात् मन का निरोध तथा इन्द्रियों को वश में करना होता है। ये विभिन्न कार्य भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए हैं जिससे वे आत्म-साक्षात्कार के पद तक ऊपर उठें जहाँ से वे कृष्णचेतना अर्थात् भक्ति को प्राप्त हों।

भक्ति योगेन चैव हि का अर्थ यह है कि श्लोक ३४ के अनुसार जो भी करणीय है, चाहे वह योग हो या यज्ञ, कर्म, वेदाध्ययन या संन्यास ग्रहण, उसे भक्तियोग में सम्पन्न करना चाहिए। चैव हि शब्द संस्कृत व्याकरण के अनुसार बताते हैं कि मनुष्य को ये सारे कार्य भक्ति के साथ-साथ करने चाहिए अन्यथा इन कार्यों का कोई फल नहीं प्राप्त होगा। कोई भी नियत कर्म भगवान् के लिए होना चाहिए। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (९.२७) में हुई है—यत्करोषि यदश्नासि—“तुम जो भी करो, जो भी खाओ, जो भी यज्ञ करो, जो भी तपस्या करो और जो भी दान दो, उन सबका फल परमेश्वर को दिया जाना चाहिए।” यहाँ पर एव शब्द जोड़ दिया गया है, जो यह बताता है कि ये कर्म इस तरह अवश्य किये जायँ। जब तक सारे कर्मों के साथ भक्ति नहीं की जाती तब तक वांछित फल नहीं मिलता, किन्तु जब हर कार्य में भक्तियोग को प्रधानता मिलती है, तो अन्तिम लक्ष्य अवश्य प्राप्त होता है।

मनुष्य को भगवान् कृष्ण तक पहुँचना होता है, जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, “अनेकानेक जन्मों के पश्चात् मनुष्य परम पुरुष कृष्ण के पास पहुँचता है और यह जानकर उनकी शरण ग्रहण करता है कि वे सब कुछ हैं।” भगवद्गीता में ही भगवान् यह भी कहते हैं भोक्तारं यज्ञतपसाम्—“समस्त यज्ञों अथवा कठिन तपस्या के भोक्ता भगवान् हैं।” वह सारे लोकों का स्वामी है और प्रत्येक जीवात्मा का सखा है।

धर्मेणोभयचिह्नेन का अर्थ है कि भक्तियोग के दो लक्षण हैं—भगवान् के प्रति आसक्ति तथा समस्त भौतिक सम्बन्धों से विरक्ति। जिस प्रकार भोजन करते समय दो प्रकार के कार्य होते हैं उसी तरह भक्तियोग की प्रगति के दो लक्षण होते हैं। भोजन करने से भूखे व्यक्ति को शक्ति तथा सन्तोष मिलता है तथा साथ ही और अधिक भोजन करने से विरक्ति होती जाती है। इस प्रकार भक्ति करने से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है और मनुष्य समस्त भौतिक कार्यों से विरक्त होता जाता है। भक्ति के द्वारा पदार्थ से जैसी विरक्ति तथा परमेश्वर के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है, वह अन्य किसी कर्म से नहीं हो पाती। परमेश्वर के प्रति इस आसक्ति को बढ़ाने की नौ विभिन्न विधियाँ हैं—ये हैं श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, सेवा, सख्यभाव, प्रार्थना, सर्वस्व अर्पण तथा भगवान् के चरणकमलों की सेवा। वैराग्य उत्पन्न करने वाली विधियाँ श्लोक ३६ में बताई गई हैं।

मनुष्य अपने नियत कार्यों को सम्पन्न करके तथा यज्ञ द्वारा स्वर्गलोक जैसे उच्च लोकों को प्राप्त कर सकता है। जब संन्यास ग्रहण करके मनुष्य ऐसी इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है, तो वह परमेश्वर के ब्रह्म-स्वरूप को समझ सकता है और जब वह अपनी वास्तविक स्वाभाविक स्थिति देख लेता है, तो वह अन्य सभी विधियों को देख लेता है और तब शुद्ध भक्ति की अवस्था में स्थित हो जाता है। उस समय वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को समझ सकता है।

परम पुरुष का ज्ञान आत्म-तत्त्व-अवबोधेन कहलाता है, जिसका अर्थ है, “स्वयं की स्वाभाविक स्थिति को समझना”। यदि कोई सचमुच परमेश्वर के शाश्वत दास के रूप में अपनी वैधानिक स्थिति को समझ जाता है, तो वह संसार की सेवा से विरक्त हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी प्रकार की सेवा में लगा है। यदि कोई अपनी स्वाभाविक स्थिति से परिचित नहीं होता तो वह अपने स्थूल शरीर, अपने परिवार, समाज या देश की सेवा में लगा रहता है। किन्तु ज्योंही वह अपनी स्वाभाविक स्थिति देख पाता है (स्वदृक् का अर्थ है “जो देखने में समर्थ है”), वह ऐसी सेवा से विरक्त होकर अपने आपको भक्तियोग में लगा लेता है।

जब तक मनुष्य भौतिक गुणों से युक्त है और शास्त्रानुमोदित अपने कर्म करता रहता है, तो वह उच्चलोकों को जा सकता है जहाँ के अधिष्ठाता देव सूर्यदेव, चन्द्रदेव, वायुदेव, ब्रह्मा तथा शिव जैसे भगवान् के भौतिक प्रतिनिधि होते हैं। सारे देवता भगवान् के भौतिक स्वरूप हैं। भौतिक कर्मों से मनुष्य केवल ऐसे देवताओं तक ही पहुँच पाता है, जैसाकि भगवद्गीता (९.२५) में कहा गया है—यान्ति देवव्रता देवान्—जो लोग देवताओं पर अनुरक्त हैं और अपने नियत कर्म करते हैं, वे देवताओं के धाम तक पहुँच सकते हैं। इस तरह मनुष्य पितृलोक जा सकता है। इसी तरह जो व्यक्ति अपने जीवन की वास्तविक स्थिति ठीक से समझता है, वह भक्ति अपना लेता है और भगवान् का साक्षात्कार करता है।

 
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