हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 32: कर्म-बन्धन  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  3.32.38 
जीवस्य संसृतीर्बह्वीरविद्याकर्मनिर्मिता: ।
यास्वङ्ग प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मन: ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
जीवस्य—जीव की; संसृती:—संसार के मार्ग; बह्वी:—अनेक; अविद्या—अज्ञान; कर्म—कार्य से; निर्मिता:—उत्पन्न; यासु—जिनमें; अङ्ग—हे माता; प्रविशन्—प्रवेश करते हुए; आत्मा—जीव; —नहीं; वेद—जानता है; गतिम्— गति; आत्मन:—अपनी ।.
 
अनुवाद
 
 अज्ञान में किये गये कर्म अथवा अपनी वास्तविक पहचान की विस्मृति के अनुसार जीवात्मा के लिए अनेक प्रकार के भौतिक अस्तित्व होते हैं। हे माता, यदि कोई इस विस्मृति में प्रविष्ट होता है, तो वह यह नहीं समझ पाता कि उसकी गतियों का अन्त कहाँ होगा।
 
तात्पर्य
 एक बार जब कोई इस भवसागर में प्रविष्ट कर जाता है, उसमें से निकल पाना उसके लिए कठिन होता है। अत: भगवान् स्वयं आते हैं या अपना प्रामाणिक प्रतिनिधि भेजते हैं और भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे शास्त्र पीछे छोड़ते जाते हैं जिससे अज्ञान के अन्धकार में भटकते जीव इन उपदेशों, साधु-पुरुषों एवं गुरुओं का लाभ उठा सकें और इस तरह से मुक्त हो सकें। जब तक जीव को साधु-पुरुषों, गुरु या कृष्ण की कृपा प्राप्त नहीं होती तब तक इस संसार के अन्धकार से निकल पाना सम्भव नहीं होता है। अकेले अपने प्रयास से तो यह सर्वथा असंभव है।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥