यदा चाहीन्द्रशय्यायां शेतेऽनन्तासनो हरि: ।
तदा लोका लयं यान्ति त एते गृहमेधिनाम् ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
यदा—जब; च—तथा; अहि-इन्द्र—सर्पों के राजा (शेषनाग) की; शय्यायाम्—शय्या पर; शेते—लेटा रहता है; अनन्त-आसन:—जिसका आसन अनन्त शेष है; हरि:—भगवान् हरि; तदा—तब; लोका:—लोक; लयम्—प्रलय; यान्ति—जाते हैं; ते एते—वे ही; गृह-मेधिनाम्—गृहमेधियों के ।.
अनुवाद
जब भगवान् हरि सर्पों की शय्या पर, जिसे अनन्त शेष कहते हैं, सोते हैं, तो भौतिकतावादी पुरुषों के सारे लोक, जिनमें चन्द्रमा जैसे स्वर्गलोक सम्मिलित हैं, विलीन हो जाते हैं।
तात्पर्य
भौतिकता के प्रति आसक्त लोग चन्द्रमा जैसे स्वर्गलोक तक पहुँचने के लिए अत्यन्त उत्सुक रहते हैं। ऐसे कई स्वर्गलोक हैं, जिन्हें वे दीर्घकालिक आयु तथा इन्द्रियभोग की सामग्री प्राप्त करके अधिकाधिक सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से चाहते हैं। किन्तु आसक्त व्यक्ति यह नहीं जानते कि यदि किसी को उच्चतम लोक—ब्रह्म लोक—मिल भी जाय तो विनाश वहाँ भी विद्यमान रहता है। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि भले ही कोई ब्रह्मलोक तक क्यों न चला जाय, किन्तु तो भी उसे वहाँ जन्म, मरण, रोग तथा जरा के कष्ट मिलेंगे। केवल भगवान् के धाम, वैकुण्ठलोक, पहुँचकर ही मनुष्य इस जगत में पुन: जन्म नहीं लेता। किन्तु ‘गृहमेधी’ या भौतिकतावादी व्यक्ति इस लाभ का उपयोग नहीं चाहते। वे तो निरन्तर एक शरीर से दूसरे में अथवा एक लोक से दूसरे लोक में देहान्तरण को ही वरीयता देते हैं। वे भगवान् के धाम में आनन्दपूर्ण ज्ञानमय शाश्वत जीवन नहीं चाहते।
प्रलय के दो प्रकार हैं। एक प्रलय ब्रह्मा की मृत्यु के समय होता है, उस समय समस्त स्वर्गों सहित सारी स्वर्गिक प्रणालियाँ जल में विलीन होकर गर्भोदक सागर में सर्पों की शय्या पर लेटे हुए विष्णु के शरीर में प्रवेश करती हैं। दूसरा प्रलय ब्रह्मा के एक दिन के अन्त में घटित होता है, जिसमें सभी निम्न लोक विनष्ट हो जाते हैं। जब भगवान् ब्रह्मा इस रात्रि के बीतने पर जगते हैं, तो ये निम्नलोक पुन: उत्पन्न होते हैं। इस श्लोक से भगवद्गीता के इस कथन की पुष्टि होती है कि जो लोग देवों की पूजा करते हैं उनकी बुद्धि जाती रहती है। ये अल्पज्ञानी पुरुष यह नहीं जानते कि यदि वे स्वर्ग जाते भी हैं, तो प्रलय के समय वे स्वयं, देवतागण तथा उनके लोक विलीन हो जाएँगे। उन्हें इसकी सूचना नहीं रहती कि नित्य वरदान से पूर्ण जीवन प्राप्त किया जा सकता है।
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