भक्ति इतनी पूर्ण होती है कि विधि-विधानों का पालन करने तथा गुरु के निर्देशन में उनको सम्पन्न करने से इसी शरीर में भी माया के चंगुल से मुक्त हुआ जा सकता है। अन्य योग-विधियों या ज्ञानयोग में मनुष्य को यह कभी निश्चय नहीं हो पाता कि उसे सिद्धि अवस्था प्राप्त होगी या नहीं। किन्तु भक्ति करने में यदि कोई प्रामाणिक गुरु के आदेशों में अविचल श्रद्धा रखता है और विधि-विधानों का पालन करता है, तो उसकी मुक्ति इसी शरीर में ही सम्भव है। श्रील रूप गोस्वामी ने भक्ति-रसामृत-सिन्धु में इसकी पुष्टि की है—ईहा यस्य हरेर्दास्ये—चाहे वह जहाँ भी स्थित हो, यदि उसका लक्ष्य गुरु के निर्देशानुसार परमेश्वर की सेवा करना हो तो वह जीवन्मुक्त अर्थात् अपने भौतिक शरीर में भी मुक्त कहलाता है। कभी-कभी नवदीक्षितों के मन में सन्देह उत्पन्न होता है कि उनका गुरु मुक्त है या नहीं और कभी- कभी वे उसके शारीरिक मामलों के प्रति भी शंकालु रहते हैं। किन्तु मुक्ति के लिए गुरु के शारीरिक लक्षण नहीं देखे जाते। देखना है, तो गुरु के आध्यात्मिक लक्षण देखिये। जीवन्मुक्त का अर्थ है कि इसी भौतिक देह में (कुछ न कुछ आवश्यकताएँ होते हुए भी) भगवान् की सेवा में पूर्णत: लगे होने के कारण वह मुक्त माना जाता है।
मुक्ति में अपने पद पर स्थित रहना सम्मिलित है। श्रीमद्भागवत में यही इसकी परिभाषा है—मुक्तिर्...स्वरूपेण व्यवस्थिति:। स्वरूप या जीव की वास्तविक पहचान का वर्णन चैतन्य महाप्रभु ने किया है। जीवेर ‘स्वरूप’ हय—कृष्णेर ‘नित्य दास’—जीव की वास्तविक पहचान (स्वरूप) यह है कि वह भगवान् का नित्य दास है। यदि कोई शत प्रतिशत भगवान् की सेवा में व्यस्त रहता है, तो उसे मुक्त समझना चाहिए। किसी के मुक्त होने या न होने की पहचान उसके भक्ति-कार्य हैं, अन्य कोई लक्षण नहीं।