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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.33.18 
गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्वमरद्रुमै: ।
कूजद्विहङ्गमिथुनं गायन्मत्तमधुव्रतम् ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
गृह-उद्यानम्—घरेलू बाग; कुसुमितै:—फूलों तथा फलों से; रम्यम्—सुन्दर; बहु-अमर-द्रुमै:—अनेक कल्पवृक्षों सहित; कूजत्—गाते हुए; विहङ्ग—पक्षियों का; मिथुनम्—जोड़ा; गायत्—गुनगुनाती; मत्त—मतवाली; मधु व्रतम्—मधुमक्खियों सहित ।.
 
अनुवाद
 
 मुख्य घर का आँगन सुन्दर बगीचों से घिरा था जिनमें मधुर सुगन्धित फूल तथा अनेक वृक्ष थे जिनमें ताजे फल उत्पन्न होते थे और वे ऊँचे तथा सुन्दर थे। ऐसे बगीचों का आकर्षण यह था कि गाते पक्षी वृक्षों पर बैठते और उनके कलरव से तथा मधुमक्खियों की गुंजार से सारा वातावरण यथासम्भव मोहक बना हुआ था।
 
 
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