श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.33.22 
तमेव ध्यायती देवमपत्यं कपिलं हरिम् ।
बभूवाचिरतो वत्स नि:स्पृहा ताद‍ृशे गृहे ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको; एव—निश्चय ही; ध्यायती—ध्यान करती; देवम्—दैवी; अपत्यम्—पुत्र; कपिलम्—कपिल को; हरिम्—भगवान्; बभूव—हो गयी; अचिरत:—तुरन्त; वत्स—हे विदुर; नि:स्पृहा—अनासक्त; तादृशे गृहे—ऐसे घर के प्रति ।.
 
अनुवाद
 
 हे विदुर, इस प्रकार अपने पुत्र भगवान् कपिलदेव का ध्यान करती हुईं वे शीघ्र ही उत्तम ढंग से सजे अपने घर के प्रति अनासक्त हो उठीं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर आध्यात्मिक उदाहरण प्राप्त है कि किस तरह कोई कृष्णभावनामृत द्वारा अपनी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। कपिलदेव कृष्ण हैं और वे देवहूति के पुत्र रूप में प्रकट हुए। कपिलदेव के गृहत्याग के बाद देवहूति उनके विचार में मग्न थीं और इस तरह वे सदा कृष्णभावनाभावित थीं। निरन्तर कृष्णचेतना में स्थित होने से वे अपने-आपको गृहस्थी से विरक्त कर सकीं।

जब तक हम अपनी आसक्ति को भगवान् में स्थानान्तरित नहीं कर देते तब तक भौतिक आसक्ति से छूटने की कोई सम्भावना नहीं रहती। अत: श्रीमद्भागवत पुष्टि करता है कि केवल ज्ञानयोग के अनुशीलन से मुक्त होना सम्भव नहीं है। केवल इतना जान लेने से कि मनुष्य पदार्थ नहीं, अपितु आत्मा या ब्रह्म है, उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं हो जाती। यदि निर्विशेषवादी आध्यात्मिक बोध की पराकाष्ठा तक पहुँच भी जाय तो वह पुन: भौतिक आसक्ति में आ गिरता है, क्योंकि वह परमेश्वर की दिव्य प्र ेमा-भक्ति में स्थित नहीं होता है।

भक्तगण भगवान् की लीलाओं का श्रवण करते हुए तथा उनके कार्यकलापों की महिमा का गान करते हुए और इस तरह उनके सुन्दर दिव्य रूप का सतत स्मरण करते हुए भक्तियोग को अपना लेते हैं। मनुष्य सेवा करके, उनका मित्र या दास बनकर तथा अपना सर्वस्व अर्पित करके ईश्वर के धाम जाने में समर्थ होता है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है—ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा—शुद्ध भक्ति करके मनुष्य भगवान् को जान सकता है और इस तरह वह स्वर्गलोक में उनकी संगति में पहुँचने का अधिकारी हो जाता है।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥